Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 719
________________ भाषा और साहित्य || शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ्मय स्वीकार अधिक संगत लगा हो । क्योंकि उत्तर भारत का मुख्य भाग उससे प्रभावित था। हर कोई लेखक यह चाहता है, उसकी कृति स्थायी रहे । वह भाषा के अस्तित्व तथा महत्व पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। शौरसेनी प्रभावशील भाषा थी। दिगम्बर लेखकों को उसमें कुछ ऐसी संभावनाएं प्रतीत हुई. हों, वे मन में आश्वस्त रहे हों कि उन द्वारा उसमें प्रणीत साहित्य स्थायित्व लिए रहेगा। ___एक दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती है कि प्राचीन काल में दिगम्बर सम्प्रदाय का उत्तर भारत से कुछ सम्बन्ध रहा भी तो वह विशेष रूप से मथुरा के आस-पास के प्रदेश से रहा हो । उस कारण भी उस प्रदेश की भाषा को अपने धार्मिक साहित्य में ग्रहण करने की मनः स्थिति उत्पन्न हो सकती है। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त शौरसेनी जैन शौरसेनी कही जाती है। इसका एक कारण तो यह है कि उसमें पहले-पहल ग्रन्थ-रचना वाले जैन विद्वान् ही थे, जिनकी अपनी परम्परा थी, अपनी शैली थी। उनके कारण वह भाषा, जो उनकी लेखिनी से पल्लवित और विकसित हुई, उनके विशेषण के साथ (जैन शौरसेनी) विश्रुत हो गई। एक और कारण भी है। जैन धर्म, जब अविभक्त था, तब से, उससे भी पूर्व भगवान् महावीर के समय से अर्द्धमागधी से विशेष सम्बद्ध रहा । भगवान् महावीर चाहे शब्द रूप में बोले हों अथवा उनके देह से ध्वनि रूप में उद्गार निकले हों, अन्ततः उनके भाषात्मक रूप की परिणति अर्द्धमागधी में होती है । दूसरे शब्दों में यह कहा जाये तो अत्युक्ति नहीं होगी कि अर्द्धमागधी एक तरह से जैन धर्म की भाषा है। जैसा कि कहा गया है, यद्यपि दिगम्बरों का अर्द्धमागधी के साथ विशेष सम्बन्ध रहा, पर अर्हद्-वाणी या आर्षवाणी के रूप में उनके मन में जो पारम्परिक श्रद्धा थी, वह कैसे मिट सकती थी। इसके सिवाय पूर्वतन श्रुत-स्रोत के परिप्रेक्ष्य में भी उनके मस्तिष्क पर उसकी छाप थी । अतः उन्होंने यद्यपि लिखा तो शौरसेनी में, पर स्वभावतः उस पर अर्द्धमागधी का प्रभाव बना रहा । इस प्रकार अद्धमागधी अर्थात् जैन धर्म की भाषा या जैन भाषा से प्रभावित रहने के कारण वह शौरसेनी जैन शौरसेनी कहलाने लगी। दिगम्बर लेखकों द्वारा प्रयुक्त प्राकृत के स्वरूप के सूक्ष्म पर्यवेक्षण तथा परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि यह नाम उस भाषा के अन्तःस्वरूप की यथार्थ परिचायकता की अपेक्षा उसके स्यूल कलेवरीय स्वरूप पर अधिक आघुप्त है अन्यथा उन द्वारा प्रयुक्त भाषा में ऐसे उदाहरण भी हैं, जो मागधी आदि की सरणि से अधिक मेल खाते हैं। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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