Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 706
________________ ६५६ ] मानव और विपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड ३ एक शती बाद होता है। जैसा भी हो, वे ईसा की द्वितीय शती से अवश्य पूर्ववर्ती रहे हैं । पुष्पदन्त तथा भूतबलि की समय-सीमा बांधने का श्राधार भी प्रायः यही है । धवला और जयधवला षट्खण्डागम के यथार्थ महत्व से लोक-मानस को अवगत कराने का मुख्य श्र ेय प्राचार्य वीरसेन को है, जिन्होंने उस पर 'धवला' संज्ञक अत्यन्त महत्वपूर्ण टीका की रचना की । धवला के विशाल कलेवर के सम्बन्ध में संकेत किया ही गया है । षट्खण्डागम जैसे महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ पर अकेला व्यक्ति गम्भीर विश्लेषण तथा विवेचन पूर्व ७२ सहस्र श्लोक - प्रमारण व्याख्या प्रस्तुत करे, निःसंदेह यह बहुत बड़ा आश्चर्य है । आचार्य वीरसेन का कृतित्व और उद्भासित हो जाता है तथा सहसा मन पर छा जाता है, जब साथ-ही-साथ यहां देखते हैं कि उन्होंने जयधवला का बीस - सहस्र - श्लोक - प्रमाण अंश भी लिखा | उतना ही कर पाये थे कि उनका भौतिक कलेवर नहीं रहा । इस प्रकार बाचार्य वीरसेन ने अपने जीवन में ९२ सहस्र - श्लोक - प्रमाण रचना की । ऐसा प्रतीत होता है, गम्भीर शास्त्राध्ययन के अनन्तर उन्होंने अपना समग्र जीवन साहित्यसर्जन के इस पुनीत लक्ष्य में लगा दिया । तभी तो इस प्रकार का विराट् कार्य सध सका । विशालकाय महाकाव्य के रूप में महाभारत, विश्व वाङ्मय में सर्वाधिक प्रतिष्ठापन्न है, क्योंकि उसका कलेवर एक लाख - श्लोक - परिमित माना जाता है। पर, वह अकेले व्यासदेव की रचना नहीं है । न जाने कितने कवियों और विद्वानों की लेखिनी का योगदान उसे मिला है। पर, धवला, जो कलेवर में महाभारत से कुछ ही कम है, एक ही महान् लेखक की कृति है । यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है । ज्ञानोपासना के दिव्य यज्ञ में अपने आप को होम देने वाले प्राचार्य वीरसेन जैसे मनीषी ग्रन्थकार जगत् में विरले ही हुए हैं । महान् विद्वान् । प्रखर प्रतिभान्वित प्राचार्य वीरसेन का वैदुष्य विलक्षण था । उनकी स्मरण शक्ति एवं प्रतिभा अद्भुत थी । उनका विद्याध्ययन अपरिसीम था । स्व- शास्त्र एवं पर- शास्त्र — दोनों के रहस्य उन्हें स्वायत्त | व्याकररण, न्याय, छन्द, ज्योतिष प्रभृति अनेक विषयों में उनकी गति पत्रतित थी । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740