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मानव और विपिटक एक अनुशीलन
[ खण्ड ३
एक शती बाद होता है। जैसा भी हो, वे ईसा की द्वितीय शती से अवश्य पूर्ववर्ती रहे हैं । पुष्पदन्त तथा भूतबलि की समय-सीमा बांधने का श्राधार भी प्रायः यही है ।
धवला और जयधवला
षट्खण्डागम के यथार्थ महत्व से लोक-मानस को अवगत कराने का मुख्य श्र ेय प्राचार्य वीरसेन को है, जिन्होंने उस पर 'धवला' संज्ञक अत्यन्त महत्वपूर्ण टीका की रचना की ।
धवला के विशाल कलेवर के सम्बन्ध में संकेत किया ही गया है । षट्खण्डागम जैसे महान् सैद्धान्तिक ग्रन्थ पर अकेला व्यक्ति गम्भीर विश्लेषण तथा विवेचन पूर्व ७२ सहस्र श्लोक - प्रमारण व्याख्या प्रस्तुत करे, निःसंदेह यह बहुत बड़ा आश्चर्य है । आचार्य वीरसेन का कृतित्व और उद्भासित हो जाता है तथा सहसा मन पर छा जाता है, जब साथ-ही-साथ यहां देखते हैं कि उन्होंने जयधवला का बीस - सहस्र - श्लोक - प्रमाण अंश भी लिखा | उतना ही कर पाये थे कि उनका भौतिक कलेवर नहीं रहा ।
इस प्रकार बाचार्य वीरसेन ने अपने जीवन में ९२ सहस्र - श्लोक - प्रमाण रचना की । ऐसा प्रतीत होता है, गम्भीर शास्त्राध्ययन के अनन्तर उन्होंने अपना समग्र जीवन साहित्यसर्जन के इस पुनीत लक्ष्य में लगा दिया । तभी तो इस प्रकार का विराट् कार्य सध सका ।
विशालकाय महाकाव्य के रूप में महाभारत, विश्व वाङ्मय में सर्वाधिक प्रतिष्ठापन्न है, क्योंकि उसका कलेवर एक लाख - श्लोक - परिमित माना जाता है। पर, वह अकेले व्यासदेव की रचना नहीं है । न जाने कितने कवियों और विद्वानों की लेखिनी का योगदान उसे मिला है। पर, धवला, जो कलेवर में महाभारत से कुछ ही कम है, एक ही महान् लेखक की कृति है । यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है । ज्ञानोपासना के दिव्य यज्ञ में अपने आप को होम देने वाले प्राचार्य वीरसेन जैसे मनीषी ग्रन्थकार जगत् में विरले ही हुए हैं ।
महान् विद्वान् । प्रखर प्रतिभान्वित
प्राचार्य वीरसेन का वैदुष्य विलक्षण था । उनकी स्मरण शक्ति एवं प्रतिभा अद्भुत थी । उनका विद्याध्ययन अपरिसीम था । स्व- शास्त्र एवं पर- शास्त्र — दोनों के रहस्य उन्हें स्वायत्त | व्याकररण, न्याय, छन्द, ज्योतिष प्रभृति अनेक विषयों में उनकी गति पत्रतित थी ।
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