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भाषा और साहित्य
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
নাম : প্রধান।
____ आचार्य वीरसेन ने टीका का अभिधान 'धवला' क्यों रखा, इस सम्बन्ध में स्पष्टतया कोई विवरण प्राप्त नहीं है । धवला शब्द संस्कृत भाषा का है, जिसका अर्थ श्वेत, सुन्दर, स्वच्छ, विशुद्ध, विशद मादि है। मास के शुक्ल पक्ष को भी धवल कहा जाता है । सम्भव है, अपनी टीका की अर्थ-विश्लेषण की दृष्टि से विशदता, भाव-गाम्भीर्य की दृष्टि से स्वच्छता, पद-विन्यास की दृष्टि से सुन्दरता, प्रभावकता की दृष्टि से उज्ज्वलता, शैली की दृष्टि से प्रसन्नता–प्रसादोपपन्नता आदि विशेषताओं का एक ही शब्द में आख्यान करने के लिए टीकाकार को धवला नाम खूब संगत लगा हो। आगे चलकर यह नाम प्रिय एवं हृद्य इतना हुमा कि षट्खण्डागम वाङमय 'धवला-सिद्धान्त' के नाम से विश्रु त हो गया।
धवला की समापन-सूचक प्रशस्ति में उल्लेख हुआ है कि यह टीका कार्तिक मास के धवल या शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन सम्पूर्ण हुई थी। हो सकता है, मास के धवल पक्ष में परिसमाप्त होने के कारण रचयिता के मन में इसे धवला नाम देना जचा हो ।
एक और सम्भावना की जा सकती है, इस टीका का समापन मान्यखेटाधीश्वर, राष्ट्रकूटवंशीय नरेश अमोघवर्ष प्रथम के राज्यकाल में हुआ था। राजा अमोघवर्ष उज्ज्वल चरित्र, सात्त्विक भावना, धार्मिक वृत्ति आदि अनेक उत्तमोत्तम गुणों से विभूषित था। उसकी गुणसूचक उपाधियों या विशेषणों में एक अतिशय 'धवल' विशेषण भी प्राप्त होता है। प्रामाणिक रूप में नहीं कहा जा सकता, इस विशेषण के प्रचलन का मुख्य हेतु क्या
व्याख्याप्रज्ञलिमवाप्य पूर्वषट्खण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितनबन्धनाधधिकारैरष्टावशविकल्पः ॥ सत्कर्मनामषेयं षष्ठं खण्डं विधाय संक्षिप्य । इति षण्णां खण्डानां प्रन्यसहस्र हिंसप्तत्या ॥ प्राकृतसंस्कृतभाषा-मिश्रा टीका विलिख्य धवलाख्याम् । जयधवलां च कवाय-प्राभूत के चतसृणां विभक्तीनाम् ।। विशतिसहनसमन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जयसेन (जिनसेन) गुरुनामा ॥ तच्छेषं चत्वारिंशता सहन : समापितवान् । अयधवलवं
षष्टिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ॥
-भूतावतार १७७-८४
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