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६५८] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खंण्ड : २ पवित्रात्मा, लोकविज्ञ, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न तथा वृहस्पति के तुल्य वाग्मी कहा है ।।
उनकी धवला टीका के विषय में जिनसेन ने बड़े भावपूर्ण शब्दों में उल्लेख किया है कि उनकी धवला भारती तथा उनकी पवित्र व उज्ज्वल कीर्ति ने अखण्ड भू-मण्डल को धवल-उज्ज्वल बना दिया। अर्थात् वे दोनों लोक-व्याप्त हो गई।' ঘৰলা ঋী বন্দনা
इन्द्रनन्दि के श्रु तावतार में आचार्य वीरसेन तथा उनकी धवला टीका की चर्चा की है । टीका की रचना के सन्दर्भ में उन्होंने बताया है कि वीरसेन ने एलाचार्य के पास सैद्धान्तिक ज्ञान अर्जित किया। गुरु के आदेश से वे वाटग्राम आये । आनतेन्द्र द्वारा निर्मापित जिन-मन्दिर में रुके । वहां उन्हें बप्पदेव-गुरु-रचित व्याख्या-प्रज्ञप्ति-षट्खण्डागम की एक पुरानी टीका मिली । वहीं उन्होंने धवला की रचना समाप्त की।
उसी प्रसंग में इन्द्रनन्दि ने वीरसेन-रचित धवला तथा अंशतः जयधवला के श्लोकप्रमाण की भी चर्चा की है। यह भी बताया है कि धवला प्राकृत-संस्कृत-मिश्र टीका है। इसी सन्दर्भ में जिनसेन द्वारा जयधवला की पूर्ति तथा उसके समग्न षष्टि-सहस्र-श्लोकप्रमाण की भी चर्चा की है।'
१. श्री वीरसेन इत्यातभट्टारकपृयुप्रथः ।
स नः पुनातु पूतात्मा वादिवुन्दारको मुनिः ।। लोकवित्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयम् । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचस्पतेरपि ॥
-आविपुराण उस्थानिका ५५-५६ २. धवलां भारती तस्य कीतिं च शुचिनिर्मलाम् । धवलीकृतनिःशेष-भुवनां तां नमाम्यहम् ॥
-आदिपुराण उत्थानिका ५८ ३. काले गते कियत्यपि ततः पुनश्चित्रकूटपुरवासीं ।
श्रीमानेत्वाचार्यो बभूव सिद्धान्ततत्त्वज्ञः ॥ तस्य समीपे सकलं सिद्धान्तमधीत्य वीरसेनगुरुः । उपरितननिबन्धनाद्यधिकारानष्ट च लिलेख ॥ आगत्य चित्रकूटात्ततः स भगवान गुरोरनुज्ञानात् । वाटपामे चानानतेन्द्रकृतजिनगृहे स्थित्वा ॥
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