Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 703
________________ माश और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय ६५६ সান-শাবলী ধ্বী সামাথাব্দন। ___ इस पट्टावली की भाषा बहुत अशुद्ध एवं मिश्रित है। यहां तक कि इसमें प्रयुक्त प्राकृत का स्वरूप अपभ्रश से हिन्दी तक पहुंच जाता है। पर, रचना के पर्यवेक्षण से ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तव में भाषा की दृष्टि से यह इसी रूप में रचित नहीं हुई । प्रतिलिपि की प्रतिलिपि किये जाते रहने से, वह भी जब ऐसे व्यक्तियों द्वारा, जो उस भाषा के ज्ञाता न हों तो वह अशुद्धि-क्रम बढ़ता ही जाता है। इस पट्टावली में भी कुछ ऐसा ही बीता है । तथ्य या आंकड़े तो इसमें बचे रह गये, भाषा उत्तरोत्तर घिसती गई, मिटती गई, बदलती गई और वह मूल से बहुत दूर चली गई है। जैसी इसकी भाषा है, उसके आधार पर इसकी कोई काल-निश्चिती नहीं की जा सकती। पर, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि यह बहुत अर्वाचीन तो नहीं है । स्व० डा० हीरालाल जैन ने भी आचार्य धरसेन के समयावधारण में इसका उपयोग किया है । उन्होंने चाहा था कि वे उसकी विशेष गवेषणा कर सकें । अतः उन्होंने उसकी मूल प्रति को प्राप्त करने का प्रयास भी किया था। वह प्रति कभी जैन सिद्धान्त भवन, आरा में थी। उसी के आधार पर जैन सिद्धान्त भास्कर में उसका प्रकाशन हुआ था, पर, तब वहां खोजने पर हस्तगत नहीं हो सकी; अतः मूल प्रति पर विशेष परिशीलन एवं विमर्श का अवसर नहीं रहा । दिगम्बर प्राचार्यों के पट्टानुक्रम के सम्बन्ध में यह पट्टावली जो विलक्षण सूचनाएं देती है, वे बड़ी महत्वपूर्ण हैं। उन पर विशेष अन्वेषण होना चाहिए। सम्भव है, कभी कोई ऐसा आधार, परम्परा या प्रमाण ही मिल जाये, जिसका अवलम्बन लेकर इस प्राकृत-पट्टावलिकार ने अपनी पट्टावली में उक्त तथ्य निबद्ध किये । ঘন ঋী বন্ধ স্থান : গাথাণাঙ । प्राकृत में मंत्र-तंत्र शास्त्र का 'जीणिपाहुड' नामक एक प्राचीन ग्रन्थ है । प्राचार्य धरसेन उसके रचयिता माने जाते हैं । आचार्य धरसेन द्वारा मंत्र-विद्या सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे जाने की संभावना अस्थानीय नहीं मानी जा सकती। विद्याध्ययन के उद्देश्य से पुष्पदन्त और भूतबलि का प्राचार्य घरसेन के सानिध्य में आने का जो प्रसंग पाया है, वहां यह उल्लेख हुआ ही है कि प्राचार्य धरसेन ने समागतः मुनियों की अध्ययन-क्षमता जांचने के लिए उन्हें दो मंत्र-विद्याएं साधने को दी। इससे यह सिद्ध होता है कि धरसेन मंत्र-तंत्रविज्ञान में निष्णात थे तथा उनका उस ओर झुकाव भी था। यही कारण है, उन्होंने विद्यार्थी प्रमों के परीक्षण का माध्यम मंत्र-विद्या को बनाया। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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