________________
भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाममय ।
यहां माधनन्दि के लिए जो पूर्वपदांथवेदी विशेषण माया है, वह काफी महत्वपूर्ण है । घरसेन भी पूर्वपदांशवेदी थे। यों भुत-कम में दोनों एक ही श्रेणी में आते हैं । इसलिए यहां वणित माघनन्दि सम्भवतः वही हैं, जिनका इन्द्रमन्दि ने श्रु तावतार में उल्लेख किया है।
जम्बूबीवपणत्ति (दिगम्बर) में भी माघनन्दि की चर्चा है। वहां कहा गया है। "मापनन्दि राग, द्वष तथा मोह से प्रतीत थे। वे श्रुत-सागर के पारगामी तथा प्रगल्म बुद्धिशाली थे । उनके शिष्य सकलचन्द्र थे, जो तत्व-ज्ञान के समुद्र में अवगाहन कर अपना कालुष्य धो चुके थे। जो नीति, नियम तथा शील से सुशोभित व गुणयुक्त थे। सकलचन्द्र के शिष्य श्रीनन्दि थे, जो निर्मल तथा उज्ज्वल ज्ञान व चारित्र्य से संयुक्त थे, सम्यक् दर्शन से परिशुद्ध थे।" __यहां माघनन्दि के लिए जो 'श्रतसागर-पारग' विशेषण दिया है, वह महत्वपूर्ण है। उससे अनुमान होता है कि ये वही माघनन्दि रहे हों, जिनका श्रु तावतार तथा नन्दि-संघ की संस्कृत-गुर्वावली में वर्णन है । क्योंकि तीनों ही स्थानों पर उनके विशिष्ट ज्ञानी होने की सूचना है, जिससे उनका ऐक्य सूचित होता है ।
संस्कृत-गुर्वावली में माघनन्दि के शिष्य का नाम पद्मनन्दि है। जंबूदीवपण्णत्ति में उनके स्थान पर सकल चन्द्र तथा श्रीनन्दि का उल्लेख है। हो सकता है, एक ही व्यक्ति के ये मिलते-जुलते से दो-दो नाम हों। সন্ধাহী অং সাধনা
एक जन-श्रु त्यात्मक घटना है। सिद्धान्त वेदी माघनन्दि किसी दिन भिक्षा के लिए नगर में गये । एक युवती कुम्भकार-कन्या ने उन्हें देखा। वह उन पर मुग्ध हो गई और
गपरायदोसमोहो सुदसायरपारओ मइ-पगम्भो। तव-संजम-संपण्णो विक्खाओ माघनंदि गुरू ॥ तस्सेव य वरसिस्सो सिद्धतमहोदहिम्मि धुयकलुसो। णय-णियम-सील-कलिदो गुणउत्तो सयलचंद गुरू ।। तस्सेव य वरसिस्सो णिम्मल-वर-णाण-चरण संजुत्तो। सम्मसणसुद्धो सिरिणंदि-गुरु ति विक्खाओ ॥
--१५४-५६
___Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org