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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : ३
डा० हीरालाल जैन ने सम्बद्ध घटनाओं, लेखों, प्रसंगों आदि के आधार पर मूडबिद्री स्थित इन ताडपत्रीय सिद्धान्त-ग्रन्थों के लेखन का समय शक संवत् ९५० के लगभग सम्भावित माना है।
সাধাৰ্থ বহন : নিবন্ধ পাব
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भारत के प्राचीन-कालीन विद्वानों, साहित्यिकों तथा ग्रन्थकारों के इतिहास के सम्बन्ध में आज भी बहुत कुछ अस्पष्ट जैसा है । अधिकांशतः अनुमानों तथा अटकलों से काम चलाना होता है । इसके पीछे भारतीय मनीषियों की एक विशेष चिन्तनात्मक पृष्ठभूमि रही है । करणीय के प्रति सर्वथा जागरूकता और अपने वैयक्तिक परिचय या आत्म-प्रकाशन के प्रति सहजतया एक उपेक्षा-भाव प्राक्तन ग्रन्थकारों में अक्सर देखा जाता है। उत्तरवर्ती लेखकों ने अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों के सम्बन्ध में कुछ लिखना चाहा हो तो उन्हें सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकी हो। यदि उपलब्ध भी हुई हो तो बहुत कम। क्योंकि कालिक व्यवधान इतिवृत्तों तथा घटना-क्रमों को विस्मृति के गर्त में पहुंचाता जाता है ।
दिगम्बर परम्परा के द्वादशांग का अंगभूत षट्खण्डागम जैसा महान् ग्रन्थ जिनसे उपलब्ध हुआ, उन प्राचार्य धरसेन के सम्बन्ध में केवल पुष्पदन्त और भूतबलि को श्रुताध्ययन कराने के अतिरिक्त कुछ भी स्पष्टतया ज्ञात नहीं है। उनके समय, गुरु-परम्परा आदि के सम्बन्ध में इधर-उधर की सामग्री के आधार पर ही कुछ संभावनाएं की जा सकती हैं।
पट्टानुम में घरसेन का अनुल्लेख
दिगम्बर सम्प्रदाय में गौतम से लोहार्य तक की पट्टावली का तिलोयपण्णत्ति, हरिवंश पुराण, धवला, जयधवला, श्रुतावतार आदि में उल्लेख है । पीछे यथाप्रसंग उस ओर संकेत किया गया है। उनमें गौतम से लोहार्य तक अट्ठाईस प्राचार्य होते हैं , जिनमें तीन केवली, पांच श्रु तकेवली, ग्यारह दशपूर्वधर, पांच एकदशांगधर तथा चार आचारांगधर हैं । लोहार्य के पश्चात् पट्टानुक्रम वणित नहीं है।
इस सन्दर्भ में यह कल्पना की जा सकती है कि लोहार्य के पश्चात् आचार्य धरसेन का समय रहा होगा । धवला में लोहार्य तक का उल्लेख कर केवल इतना-सा कहा है कि धरसेनाचार्य को प्राचार्य-परम्परा से आते हुए अंगों तथा पूर्वो के ज्ञान का एकदेश
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