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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय
↑ વર્ષે
श्रावण शुक्ला दशमी शुक्रवार को हुआ । शुभचन्द्रदेव मूल संघ - देशीगरण - पुस्तक- गच्छ से सम्बद्ध थे ।
श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४९ (१२९) में देमति के समाधि मरण को प्रशस्ति के रूप में विस्तृत उल्लेख है, जिसमें उनके अनेक गुण - आहार, शास्त्र, औषध, अभय आदि की दानशीलता, देवपूजाभिरुचि, सतीत्व, पुण्यशीलता, लावण्य आदि की चर्चा की गई है । अन्त में कन्नड़ में उसके देहावसान का समय शक संवत् १०४२ फाल्गुन कृष्णा ११ बृहस्पतिवार लिखा है । "
अनुमेय है, मति द्वारा अपने गुरु शुभचन्द्रदेव को इन ताड़पत्रीय सिद्धान्त-ग्रन्थों के उपहृत किये जाने का समय सम्भवतः शक संवत् १०३७ तथा १०४२ के मध्य रहा हो ।
१. एतत्सूचक श्लोक, जो धवला की प्रशस्ति तथा श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० ४३ (११७) में समान रूप में प्राप्त है : वाणाम्भोधिनमश्शशांकतुलि ते जाते शकाब्दे ततो, वर्षे शोभकृताह्वये ब्युपनते मासे पुनः श्रावणे । पक्षे कृष्णविपक्षवर्तिनि सिते वारे वशम्यां तिथौ, स्वर्यातः शुभचन्द्रवेवगणभृतु सिद्धांतवारांनिधिः ॥ २. आहारं त्रिजगज्जनाय विभयं भीताय दिव्यौषधं, व्याधिव्यापदुपेतदीन मुखिने श्रोत्रे च शास्त्रागमम् । एवं देवमतिस्सर्वव ववती प्रत्रक्षये स्वायुषामहं वमतिं विधाय विधिना विव्या वधूः प्रोवभूत् ॥ आसीत्परक्षोभकरप्रतापाशेषावनीपालकृतादरस्य
चामुण्डनाम्नो वणिजः प्रिया स्त्री मुख्या सती या भुवि देमतीति ॥
भूलोकचैत्यालयचैत्यपूजाव्यापारकृत्यादरतोऽवतीर्णा
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स्वर्गात्सुरस्त्रोति विलोक्यमाना पुण्येन लावण्यगुणेन चाव ॥ वायिन्यलं आहारशास्त्राभयभेषजानां वर्णचतुष्टयाद । पश्चात्समाधिक्रियया मृदन्ते स्वस्थानवत्स्वः प्रविवेश योच्चैः ॥ जित्वा व्यवस्थापितधर्मनृत्त्या । सद्धर्मशत्रु कलिकालराजं
तस्या जयस्तम्भनिभं शिलाया स्तम्भं व्यवस्थापयति स्म लक्ष्मीः ॥
श्री मूल संघद वेशिगगणद पुस्तकगच्छद शुभचन्द्रसिद्धान्तवेवर गुड्डि सक वर्ष १०४२ नेय विकारि संवत्सरद फाल्गुन ब० ११ बृहबार बन्दु संन्यासन विधियि मिक्क सुडिपि ।
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