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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाक मय । ६०१
धवलाकार ने लिखा है, जिस दिन विद्याध्ययन समाप्त हुआ, वह आषाढ़ शुक्ला एकादशी का दिन था, पूर्वाह्न का समय था। स्नातक-शिष्यों ने सोचा, हम अब अपने विद्यागुरु का और सान्निध्य पायेंगे, उनकी सेवा-शुश्रुषा करेंगे। पर, घटना और ही प्रकार से घटी । आचार्य धरसेन ने उन्हें उसी दिन रवाना कर दिया । इन्द्रनन्दि ने अपनी पुस्तक में उन्हें दूसरे दिन रवाना करने का उल्लेख किया है। खैर, शिष्यों को यह अपने मनोनुकूल तो कैसे लगता, पर जैसी भी हो, गुरु की आज्ञा कभी लांघनी नहीं चाहिए, वे चल पड़े।
वर्षावास का समय लगभग आ ही चुका था। क्योंकि आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी से जैनों में उसका प्रारम्भ माना जाता है । जैन मुनि वर्षावास में विहार नहीं करते। वे किसी एक ही ग्राम या नगर में चातुर्मासिक प्रवास करते हैं। यहां यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि प्राचार्य धरसेन ने अपने शिष्यों को विदा करने में इतनी शीघ्रता क्यों की, जब कि मुनियों के विहार का समय लगभग समाप्त हो चुका था।
নগ্ধ ঋণ প্রস্থান : ভাবনাথ
आचार्य धरसेन द्वारा अपने मन्तेवासियों को इतना शीघ्र बिहार करा देने के सन्दर्भ में अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं।
प्राचार्य धरसेन ने जब महिमानगरी के मुनि-सम्मेलन को लेख भेजा, तब सम्भवतः उसका कारण उन्हें अपने आयुष्य की अल्पता ज्ञात हुआ हो। अन्यथा वे स्वयं चलाकर ऐसा क्यों करते । अब, जब वे दोनों शिष्यों को अपनी विद्या दे चुकते हैं तो शायद उनका आयुष्य मृत्यु के बिल्कुल निकट पहुंच गया हो। उन्होंने सोचा हो, इन्हें तो जाना है ही, जिन शिष्यों को उन्होंने इतने अनुग्रह और वात्सल्य से विद्या-दान दिया है, वे (शिष्य) उन्हें अपनी आंखों के सामने देह-त्याग करते देख कितने दुःखी होंगे। यह भी हो सकता है। उन्हें लगा हो, यदि शिष्य सामने रहेंगे तो स्यात् उनके मन में अपने अन्तिम समय में अपने प्रिय, विनीत एवं आज्ञाकारी शिष्यों के प्रति कुछ ममता का भाव उत्पन्न हो जाये, जो उनके उदात्त एवं तितिक्षु श्रमण-जीवन के प्रतिरूप हो । १. पुणो कमेण वक्खाणतेण आसाढ-मास-सुक्क-पक्ख-एक्कारसीए पुग्वण्हे गंथो समाणिवो ।
-षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ०७० २. पुणो तदिवसे चेव पेसिवा संतो।
-षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ०७१
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