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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
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दक्षिणापथ के किसी प्राचीन ग्रन्थ-भण्डार की कारा में पड़ी प्रकाश में आने की बाट जोह रही हो ।
कषाय- प्राभूत
दिगम्बर श्राम्नाय में प्राप्त परम्परा की शृंखला में माना जाने वाला एक ग्रन्थ और है— कषाय- प्राभृत। इसके रचयिता प्राचार्य गुरणधर थे । षट्खण्डागम को जहां प्रथम सिद्धांत ग्रन्थ कहा जाता है, वहां कषाय- प्राभूत की द्वितीय सिद्धान्त ग्रन्थ के रूप में ख्याति है । दिगम्बर- परम्परा में यह ग्रन्थ भी प्रारम्भ से ही काफी समाहत रहा है । इसकी भाषा षट्खण्डागम की तरह शौरसेनी प्राकृत है । कषाय- प्राभृत पर भी व्याख्या साहित्य रचा गया, पर, आज वह प्राप्त नहीं है ।
घबला के महान् लेखक आचार्य वीरसेन ने कषाय प्राभृत पर भी टीका लिखना प्रारम्भ किया । वे षट्खण्डागम की तरह उस पर विशाल टीका लिखना चाहते थे । वे बीस हजार श्लोक - प्रमाण टीका- उद्दिष्ट का एक अंश ही लिख पाये थे कि उनका देहावसान हो गया । पर वह कार्य बाकी नहीं रहा । उनके सुयोग्य उत्तराधिकारी, प्रखर विद्वान् जिनसेन ने इस कार्य का बीड़ा उठाया। वे भी बड़े अध्येता एवं बहुश्रुत थे । अत्यन्त लगन, निष्ठा व तन्मयता से उन्होंने कार्य किया । फलतः वह टीका ६० हजार श्लोक - प्रमाण में सम्पूर्ण हुई, जिसमें चालीस हजार श्लोक - प्रमाण जिनसेन का है । कषाय प्राभृत, विषयवस्तु, विवेचन आदि पर श्रागे यथा-प्रसंग प्रकाश डाला जायेगा |
षट्खराडागम : ग्रन्थागार की कारा से मुक्ति
षट्खण्डागम, जो दिगम्बर जैन आम्नाय का सर्वाधिक महिमाशाली वाङ्मय है, जिसके विवेचन - विश्लेषण का प्रसंग प्रस्तुत प्रकरण में चल रहा है, एकमात्र दक्षिण में ताड़पत्रीय रूप में सुरक्षित रहा । दक्षिण का जैन धर्म से, विशेषतः दिगम्बर सम्प्रदाय से निष्ठतम सम्पर्क रहा है । दक्षिणापथ एवं जैन धर्म के सन्दर्भ में यहां संक्षेप में प्रकाश डालना अप्रासांगिक नहीं होगा । विवेच्य विषय के विशदीकरण में वह एक प्रकार से सहायक ही होगा; अतः कुछ महत्वपूर्ण तथ्य यहां उपस्थित किये जा रहे हैं ।
दक्षिणापथ में जैन धर्भ
जैन धर्म का उद्भव उत्तर में हुआ । प्रथम तीर्थंकर ऋषभ अयोध्या के थे, अन्तिम तीर्थंकर महावीर वैशाली के । अयोध्या उत्तर भारत का लगभग मध्यवर्ती स्थान है और वैशाली पूर्वांचलीय ।
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