________________
भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
[ ६३७
प्रतिलिपियों के आधार पर भी हुईं। इस प्रकार अजमेर, अमरावती, आरा, इन्दौर, कारंजा, झालरापाटन, दिल्ली, बम्बई, ब्यावर, सागर, सिवनी तथा सोलापुर में उन सिद्धान्त-ग्रन्थों की प्रतिलिपियां सन्निधापित हुईं ।
3
यह उन महान् ग्रन्थों के शास्त्र भण्डार से बाहर आने की कहानी है, जो काफी प्रेरक' भी है और रोमांचक भी । धर्म के दो पक्ष हैं-ज्ञान और उपासना । दोनों सन्तुलित रूप में चलें तो यथार्थतः धर्म सधता है । धर्म केवल पूजा और प्रणति तक सिमट जाये तो.... उससे जीवन का साध्य कभी सधता नहीं । जब भी, जिस भी युग में ऐसा होता है, तथाकथित धार्मिक जनों में जड़ता व्याप्त हो जाती है और मात्र धर्मोपासना की बंधी - बंधाई यान्त्रिक पद्धति ही उनके हाथ में रह जाती है । षट्खण्डागम जैसे महत्वपूर्ण वाङ् मय के शताब्दियों तक केवल धूप की सुवास लेते हुए अवस्थित रहने की घटना क्या इस श्रेणी में नहीं आती ? शास्त्र की सच्ची पूजा उसका स्वाध्याय, उस पर मनन, चिन्तन, परिशीलन एवं निदिध्यासन है । वह सब छूट जाये और केवल प्रातः सायं उसकी धूप, दीप, केसर, चन्दन से अर्चना मात्र होती रहे, क्या इसे वास्तविक अर्चना और पूजा की संज्ञा दी जा सकती है, इसका उत्तर पाना विज्ञजनों के लिए कठिन नहीं है ।
W
खVडTTम का कान
स्वनामधन्य स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन हेतु बड़ा अध्यवसाय किया । उन्हें तथा उनके साथियों को अनेक विघ्न वाधाओं का सामना करना पड़ा | तब एक वर्ग ऐसा भी था, जो उन ग्रन्थों के प्रकाशित होने में धर्म की अवहेलना और ज्ञान की सातना समझता था । इन महान् ग्रन्थों को प्रतिमानों की तरह केवल मन्दिरों में या शास्त्र - भण्डारों में प्रतिष्ठित देखना ही उन्हें श्रेयस्कर लगता था । पर मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् के अनुसार डा० जैन अपने साथियों सहित वर्षों उस कार्य में लगे रहे । फलतः वे महान् ग्रन्थ, जिनके कभी दर्शन भी दुर्लभ थे, जन-साधारण के हाथ में आ गये ।
डा० जैन और उनके साथियों की कठिनाइयों का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि जब प्रकाशन की चर्चा चली तो कोई भी अपनी प्रतिलिपियां उन्हें देने के लिए सहसा तैयार नहीं हुआ । डा० जैन ने स्वयं लिखा है : पहली चिन्ता घबल, जबधवल की प्रतिलिपि प्राप्त करने की हुई । उस समय इन ग्रन्थों को प्रकाशित करने के नाम से ही धार्मिक लोग चौकन्ने हो जाते और उस कार्य के लिए कोई प्रतिलिपि देने के लिए,
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org