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भाषा और साहित्य]
शौरसेनी प्राकृत और उसका मामय
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कनाड़ी प्रतिलिपि का कार्य भी साथ-ही-साथ सम्पन्न हो गया। पति-पत्नी दोनों ने मिल कर इस कार्य में घोर परिश्रम किया।
पं० गजपति शास्त्री का यह कार्य नैतिकता की भाषा में नहीं आता तथा न उन्होंने एकमात्र ज्ञान-प्रसार के भाव से ही उसे किया, फिर भी इतना तो निःसंकोच कहा जा सकता है कि पं० गजपति शास्त्री और उनकी विदुषी पत्नी यदि ऐसा न करते तो ये दुर्लभ सिद्धान्त-ग्रन्थ पन्थ-भण्डार की कारा से शायद ही बाहर पा पाते । यदि माते तो भी बड़े विलम्ब से, बड़ी कठिनाई से ।
নী সানিলা স্কা বাসিসন
पं० गजपति शास्त्री अपनी प्रतिलिपि किसी सुयोग्य, समर्थ व्यक्ति को उपहृत करना चाहते थे, जिससे वह किसी उपयुक्त स्थान में अवस्थित रह सके ताकि कभी उपयोग में भी आ सके । वे उसके लिए पुरस्कार भी चाहते थे। वे सोलापुर आये। उन्होंने सेठ हीराचन्द से अनुरोध किया कि वे प्रतिलिपि ले लें। सेठ ने प्रतिलिपि लेना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने मित्र बम्बई निवासी सेठ माणिकचन्द जे०पी० को भी लिख दिया कि वे भी धवल, जयधवल की प्रतिलिपि स्वीकार न करें। यद्यपि सेठ हीराचन्द हृदय से इन सिद्धान्त-ग्रन्थों का प्रचार-प्रसार चाहते थे और जैसा कि पहले सूचित किया गया है, तदर्थ अधिक प्रतिलिपियां कराना भी चाहते थे, पर ग्रन्थ बाहर न ले जाने के सम्बन्ध में मूडबिद्री के भट्टारक तथा पंचों के साथ उनकी वचन-बद्धता थी, जो प्रतिलिपियां स्वीकार करने से भंग होती थी; अतः वैसा करना उन्हें अपने लिए नैतिक नहीं लगा।
तब पं० गजपति शास्त्री सहारनपुर गये । वहां जैन समाज के प्रमुख लाल जम्बूप्रसाद रईस थे। उन्होंने प्रतिलिपियां स्वीकार कर ली और शास्त्रीजी को पुरस्कार प्रदान किया । प्रतिलिपियां मन्दिर में रख दी गई।
लाला जम्बूप्रसाद रईस चाहते थे कि उन द्वारा गृहीत उन सिद्धान्त-ग्रन्थों की देवनागरी में भी प्रतिलिपि हो ताकि उत्तर भारत में उनका उपयोग हो सके। पं० गजपति शास्त्री ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे वैसा कर देंगे। पर, यह सम्भव नहीं हो सका, क्योंकि पं० गजपति शास्त्री अपने पुत्र की रुग्णता के कारण घर लौट आये । संयोग ऐसा हुआ, उनकी पत्नी भी रुग्ण हो गई तथा कुछ समय के पश्चात् उसका देहावसान हो गया। ऐसी विषम परिस्थिति के कारण शास्त्रीजी फिर सहारनपुर नहीं जा सके। १९२३ ईसवी
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