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६१६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन यह भी प्रकट होता है कि वे भूतबलि से ज्येष्ठ रहे हों, तभी तो भूतबलि ने अपने शिष्य के हाथ उनके पास ग्रन्थ भेजा । धवलाकार ने भी ग्रन्थारम्भ में अपने द्वारा किये गये मंगला. चरण के अन्तर्गत पहले पुष्पदन्त को और बाद में भूतबलि को वन्दन-प्रणमन किया है ।। मन्थ-रचना में प्रारम्भ का अंश पुष्पदन्त का है तथा आगे का भूतबलि का; जिससे यह तथ्य समर्थित होता है । মৃণা : * অধুন কানি
दिगम्बर-परम्परा में षट्खण्डागम का प्रारम्भ से ही बड़ा महत्व माना जाता रहा है । फलतः अनेक विद्वानों ने इस पर टीकाएं लिखीं, जिनमें कुन्दकुन्द (वि. द्वितीय शती), शामकुड (वि० तृतीय शती), तुम्बुलूर (वि० चतुर्थ शती), समन्तभद्र (वि. पंचम शती) तथा बप्पदेव (लगभग वि० षष्ठ-अष्टम शती के मध्य) मुख्य हैं ।
विक्रम की नवम शती में अपने युग के उद्भट विद्वान् प्राचार्य वीरसेन ने इस पर धवला नामक टीका लिखी, जो ७२ हजार श्लोक-प्रमाण है। वीरसेन का अध्ययन बड़ा विशाल एवं व्यापक था। प्रतीत होता है, उन्होंने षट्खण्डागम पर रचित तथा उससे सम्बद्ध व्याकरण-साहित्य का पालोडन कर डाला था, जो अपनी टीका में उन द्वारा स्थान-स्थान पर किये गये विश्लेषण से गम्य है। उनकी टीका जहां कलेवर में इतनी विशाल है, वहां सूक्ष्म तात्त्विक विश्लेषण, अनेक आचार्यों एवं वादियों के मतमतान्तरों के परिशीलन, परीक्षण, समीक्षण और विवेचन की दृष्टि से भी अद्भुत है । भारतीय तत्व-चिन्तनधारा के क्षेत्र में निःसन्देह वीरसेन का यह कार्य अपनी कोटि का एक असाधारण कार्य है।
व्याख्या की वरेण्यता, वैशद्य एवं सर्वांगीणता आदि के कारण विद्वत्समाज में यह टीका बहुत समाइत हुई तथा पठन-पाठन में इसी का निर्बाध उपयोग होने लगा। सम्भवतः इसी का यह परिणाम था कि इस टीका की रचना के बाद लगभग पिछली सभी टीकाओं का प्रसार रुक गया । आज उनमें से कोई भी हमारे समक्ष नहीं है। मालूम नहीं, कोई आज भी
१. पणमामि पुप्फदंत दुकयंतं दण्णयंधयार-रवि ।
भग्ग-सिव-मग्ग-कंटयमिसि-समिइ-वई सया दंतं ॥ ५॥ पणमह कय-भूय-बलि भूयबलि केस-वास-परिभूय-बलि । विणिहय-वम्मह-पसरं वड्ढाविय-विमल-णाण-बम्मह-पसरं ॥ ६ ॥
-षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७
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