Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 680
________________ ६३०१ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ विस्तृत और बहुतर अध्यवसाय से साध्य सरणि का क्यों अवलम्बन करे । खैर, जैसा भी हुआ, उसे स्पृहणीय नहीं कहा जा सकता । तत्व - ज्ञान का क्षेत्र वस्तुतः बड़ा विशाल है । उसमें अवगाहन करने के लिए तो जीवन भर की साधना की मांग है । कामचलाऊ बात वहां नहीं होती । सुविधाप्रिय मनोवृत्ति में कामचलाऊपन का प्राधिक्य रहता है । अतः धवला सहित षट्खण्डागम के अध्ययन से जो लभ्य है, वह मात्र गोम्मटसार के अध्ययन से लब्ध हो सके, महीं माना जा सकता । * ज्ञान तो उभय पक्षी है -- वह साधन भी है, साध्य भी है। इसलिए वहां सुविधाअसुविधा का प्रश्न नहीं उठता। खैर, जैसा भी हो, अन्ततः ये शास्त्र ग्रन्थ भण्डार में स्थिर हो गये । वे पूजा तथा दर्शन की वस्तुमात्र बनकर रह गये । ज्ञान का स्रोत तो गंगा का बहता नीर है । वह सदा बहता रहना चाहिए। क्योंकि वह सरोवर का बन्द जल नहीं है । तत्त्व-ज्ञान की महिमामयी निधि को अपने में समेटे हुए ये सिद्धान्त-ग्रन्थ जिस स्थिति में श्राकर निरुद्ध हो गये, क्या वह उनकी तड़ाग के जल की-सी स्थिति नहीं थी ? मूडबिद्री दिगम्बर जैनों का भारत - विख्यात तीर्थं है । प्रतिवर्ष सहस्रों जैन तीर्थ यात्रा हेतु वहां जाते रहे हैं तथा रत्नमयी जिन - प्रतिमाओं के साथ-साथ इन सिद्धान्त-ग्रन्थों के भी दर्शन करते रहे हैं । अाज भी यह सब होता है । कारा शब्द अच्छा तो नहीं है, पर यों कहना न अवहेलना है और न अत्युक्ति ही कि पिछली कई शताब्दियों से ये ग्रन्थ ग्रन्थ भण्डार की कारा में बन्द थे । देव-मूर्ति के रूप से अधिक उनका कोई व्यावहारिक अस्तित्व रह नहीं गया था । षट्खण्डागम के यशस्वी सम्पादक स्वर्गीय डा० हीरालाल जैन ने इस सम्बन्ध में भावविह्वल शब्दों में लिखा है : "इन सिद्धान्त-ग्रन्थों में जो अपार ज्ञान-निधि भरी हुई है, उसका गत कई शताब्दियों में हमारे साहित्य को कोई लाभ नहीं मिल सका; क्योंकि इनकी एकमात्र प्रति किसी प्रकार तालों के भीतर बन्द हो गई और अध्ययन की वस्तु न रहकर पूजा की वस्तु बन गई । यदि ये ग्रन्थ साहित्य-क्षेत्र में प्रस्तुत रहते तो उनके आधार से अब तक न जाने कितना किस कोटि के साहित्य का निर्माण हो गया होता और हमारे साहित्य को कौन-सी दिशा व गति मिल गई होती । कितनी ही सैद्धान्तिक गुत्थियां, जिनमें विद्वत्समाज के समय और शक्ति का न जाने कितना ह्रास होता रहता है, यहां Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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