________________
भाषा और साहित्य ] सौरसेनी प्राकृत और उसका वामय ६२९ चारुकीति पण्डिताचार्य दोर समुद्र से अपने शिष्यवृन्द सहित मूडबिद्री पाये । जैन धर्म के प्रसार, प्रभावना आदि की दृष्टि से सम्भवतः उन्हें वह स्थान - अधिक उपयोगी प्रतीत हुआ हो । वहां उन्होंने गुरु-पीठ-भट्टारक-पीठ की स्थापना की। इस प्रकार यह मूडबिद्री भट्टारक-पीठ की स्थापना का इतिवृत्त है । स्थापना काल ११७२ ईसवी माना जाता है। प्रथम भट्टारक चारुकीति के नाम पर वहां के सभी भट्टारक इसी अभिधान से सम्बोधित किये जाते हैं। प्रथम भट्टारक के पश्चात् यह नाम पदवी-मूलक हो गया । भट्टारकों के साथ चारुकीति लगा रहता है अर्थात् सब के सब चारुकीर्ति ही कहे जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि षटखण्डागम-धवल, जयधवल तथा महाधवल सिद्धान्त-ग्रन्थों की ताडपत्रीय प्रतियां यहां धारवाड जिले के बंकापुर नामक स्थान से लाई गई । इन अत्यन्त महत्वपूर्ण ग्रन्थों का मडबिद्री में लाया जाना, सन्निधापित किया जाना यह सिद्ध करता है कि कभी इस पीठ का दक्षिण के जैन जगत में बहुत बड़ा महत्व रहा है। विशेषतः कर्नाटक में जैन धर्म के पठन-पाठन, प्रचार-प्रसार का निःसन्देह यह बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। तभी तो ऐसा प्रावश्यक प्रतीत हया हो कि उक्त सिद्धान्त-ग्रन्थों की पाण्डुलिपियां वहां रखी जायें और बंकापुर से या जहां कहीं से वे मृडबिद्री पहंची, वहां के संघ ने या अधिकारियों ने महर्ष उन्हें प्रेषित किया हो । अन्यथा यह सब कब सम्भव था ? সূৰিী # ভিন্ন
दिगम्बर-परम्परा के सर्वाधिक मान्य सिद्धान्त-ग्रन्थों की समग्र भारत में केवल एक ही ताडपत्रीय प्रतिलिपि सुरक्षित रह सकी, बड़ा आश्चर्य है । कभी दिगम्बर-मुनियों में इन ग्रन्थों के पठन-पाठन का अत्यधिक प्रसार रहा था । जैन सिद्धान्त में पारगामिता प्राप्त करने के लिए इन ग्रन्थों का अध्ययन परम आवश्यक भी था। वे ही विद्वान सैद्धान्तिक कहे जाते थे, जो षटखण्डागम के वेत्ता होते थे। पर, आगे चलकर स्थितियां परिवर्तित हो गई हों। सम्भवतः इनके पठन-पाठन का क्रम प्रायः निरुद्ध जैसा हो गया हो । पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग संकेत किया गया है, जिस प्रकार धवला की रचना के बाद षट्खण्डागम की पिछली टीकाएं निरस्त हो गई, उनके स्थान पर एकमात्र धवला का अध्ययन चलने लगा, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य द्वारा गोम्मटसार का प्रणयन हो जाने के अनन्तर धवला की भी वैसी ही स्थिति हो गई हो अर्थात् धवला सहित षटखण्ड-वाङमय, जो अत्यन्त विस्तृत है, के पठन-पाठन का उत्साह मन्द पड़ गया हो । अध्येतृगण षट्खण्डागम वाङ्मय के सार पर आधत गोम्मटसार से ही अपना काम चलाने लगे हों। आखिर मानव सुविधावादी तो है ही, जहां बहुत संलिप्त तथा अल्पतर अध्यवसाय से कोई कार्य सधे तो उसके लिए वह
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org