________________
भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
सुलझी हुई पड़ी हैं। ऐसी विशाल सम्पति पाकर भी हम दरिद्री ही बने रहे"
षट्खडागम : बहिर्निष्कमया की कहानी
समय-समय यह विचारोद्वेलन तो होता
ज्ञानोपासक एवं ज्ञानानुरागी जनों के मन में रहा है कि ये महान् सिद्धान्त ग्रन्थ प्रकाश में आयें, इनका पठन-पाठन हो, प्रचार-प्रसार हो, पर विचार का क्रियान्वयन इतना सरल नहीं है । इन ग्रन्थों के बाहर आने, प्रकाश में आगे की बड़ी रोचक कहानी है । उसे पाठकों के समक्ष उपस्थित करना मुझे अावश्यक प्रतीत होता है ।
पं० टोडरमलजी के समय में चिन्तन
दिगम्बर समाज में पं० टोडारमलजी (वि० सं० १७९७ - १८२४) उत्कृष्ट तत्त्व - वेता के रूप में विश्रुत रहे हैं । उनके लिए प्रयुज्यमान ' आचार्य- कल्प' विशेषरण इस तथ्य का उद्घाटक है । उनके समय में जयपुर तथा अजमेर के श्रावकों में इन सिद्धान्त-ग्रन्थों को प्रकाश में लाने, इनके पठन-पाठन का प्रचार करने श्रादि पर विचार चला, पर उनकी कोई क्रियान्विति नहीं हो सकी। वैसे पं० टोडरमलजी ने आयुष्य ही बहुत कम पाया । यदि उनका दीर्घं आयुष्य होता तो सम्भव है, वे संघ को इस तरफ और प्रेरित करते ।
१. षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, प्राक्कथन पृ०६
[ 41
सेठ भाविन्द की यात्रा : विचारीद्दोलन
बम्बई निवासी स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द जे० पी० दिगम्बर समाज के एक प्रसिद्ध उदारमना, धर्मनिष्ठ एवं समाज सेवी सज्जन थे । एक प्रसंग बना, वे विक्रमाब्द १९४० में संघ सहित मूडबिद्री की यात्रा पर गये । उन्होंने वहां रत्न- प्रतिमानों तथा सिद्धान्त-ग्रन्थों के दर्शन किये। उनका मन रत्नमयी प्रतिमानों की अपेक्षा सिद्धान्त-ग्रन्थों की ओर विशेष आकृष्ट हुआ । जब उन्होंने ताड़-पत्रों की स्थिति देखी, जो जीर्ण होते जा रहे थे, उनके मन में चिन्ता व्याप्त हो गई, कहीं ऐसा न हो, ये महान् ग्रन्थ उत्तरोत्तर जीणं होते जायें और एक दिन ऐसा आये, शायद ये हमें उपलब्ध ही न रह सकें । सेठ ने मन्दिर के भट्टारक तथा पंचों के समक्ष चर्चा की। उनसे पूछा, क्या आप लोग इन ग्रन्थों को पढ़ सकते हैं ? उन्होंने कहा- हम तो केवल दर्शन एवं पूजा कर लेने में ही अपना सौभाग्य मानते हैं और सन्तोष कर लेते हैं, पढ़ नहीं सकते । सेठजी चिन्तित हो गये कि कितना आश्चर्य है, ग्रन्थों
Jain Education International 2010_05
ביין
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org