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मागम और त्रिपिटक । एक अनुशीलन आगम आर ना
उत्तरापथ में प्रादुर्भूत एवं प्रसृत यह धर्म दक्षिण में हिन्द महासागर तक फैला, जिसे प्राज शताब्दियां ही नहीं, सहस्राब्दियां व्यतीत ही चली हैं । दीर्घ काल तक वह दक्षिण भारत में अतीव लोकप्रिय था, जहां राजा और प्रजा-दोनों की असीम श्रद्धा तथा आदर उसे प्राप्त था।
जैन धर्म के दक्षिण-प्रवेश के सन्दर्भ में परम्परया यहां तक माना जाता है कि प्राद्य तीर्थंकर ऋषभ तथा चरम तीर्थंकर महावीर का यहां से सीधा सम्बन्ध रहा है। प्रो० प्रस के० रामचन्द्रराव ने इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए लिखा है : "ग्यारहवीं शती के एक संस्कृत ग्रन्थ में उपाख्यान है । उसमें कहा गया है कि महावीर स्वयं दक्षिण में पाये, विशेषतः कन्नड़ देश में, जो तब हेमांगद-देश कहा जाता था। उस समय जीवन्धर नामक राजा था। वह महावीर के सम्पर्क में पाया और उनसे श्रमण-जीवन में प्रव्रजित हो गया। ऐसा भी विश्वास किया जाता है कि प्राद्य तीर्थंकर ऋषभ, जो अनुमानतः चौबीसवें तीर्थकर महावीर के आविर्भाव (५९९ ई० पूर्व) से सहस्रों वर्ष पूर्व हुए, के श्रमण-संघ में दाक्षिणात्य राजकुमार भी सम्मिलित थे, जो अन्त में सौराष्ट्रस्थित पालीताना के शत्रुजय पर्वत पर चले गये।""
1. Kshatra Chudamani by Odeyadeva Vadibhsimtra; the legend is retold
in the Kannada Jeevandhara Charite of Bhaskara and the Tamil Jeevaka Chintamani of Tiruthukka-devar.
2. There is a legend, told in an eleventh Century Sanskrit work. That
Mahavira himself came to the South, to the Kannada Country more specifically, (Known at that time as Hemangada-desha), during the reign of King Jivandhara, whom Mahavira met and admitted into the asectic fold. There is a belief that even during the days of the very first Tirthankara Rishabha, Presumably several thousand of years before the arrival of the twenty fourth Tirthankara, Mahavira, 599 B.C., there were South Indian princes in the entourage of Rishabha and that they finally retired to the Satrunjaya Hills in Palitana, Saurashtra,
-Jainism in South India, Page 1
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