Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 656
________________ ६०६ । आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड:२ आज्ञा लेने वाले थे।"1 __ आगे आचार्य धरसेन की श्रुतोन्मुखी शुभाशंसा, विद्यार्थी मुनियों की पात्रता की परीक्षा, मुनियों द्वारा अपने योग्यत्व का समापन, श्रु ताध्ययन का शुभारंभ आदि के सम्बन्ध में धवलाकार ने जो उल्लेख किया है, वह वस्तुतः पठनीय है; अतः उसे यहां उपस्थित किया जा रहा है । आचार्थ धरसेन का स्वप्न धवला के अनुसार-महिमानगरी से रवाना हुए दोनों मुनि चलते-चलते पहुंचने वाले थे। इधर आचार्य धरसेन ने रात के अन्तिम पहर में एक स्वप्न देखा—कुन्द, चन्द्र तथा शंक जैसे उज्ज्वल वर्ण वाले, सभी शुभ लक्षणों से युक्त दो वृषभ आते हैं, वे तीन बार उनकी (प्राचार्य धरसेन की) प्रदक्षिणा करते हैं और अत्यन्त नम्रतापूर्वक उनके चरणों में पड़ जाते हैं। यह स्वप्न देख आचार्य धरसेन परितुष्ट हुए तथा सहसा उनके मुंह से निकल पड़ाश्रुत देवता की जय हो । उसी दिन वे दोनों विद्यार्थी-मुनि आचार्य धरसेन की सेवा में पहुंचे। उन्होंने प्राचार्य की चरण-वन्दना आदि कृति-कर्म किये । दो दिन सुसताये । तीसरे दिन विनयपूर्वक प्राचार्य धरसेन से निवेदन किया-इस (श्रुताध्ययन) के कार्य (उद्देश्य) से हम आपके श्रीचरणों में उपस्थित हुए हैं। प्राचार्य धरसेन बोले-यह सुष्ठ है, भद्र (कल्याणकारी) है और उन्होंने समागत मुनियों को आश्वासन दिया।" १. तेण वि सोरट्ठ विसयगिरिणयरपट्टणचंवगुहाठिएण अटुंगमहानिमित्तपारसण गन्थवोच्छेवो होहवित्ति जावभएण पवयण-वच्छलेण दक्षिणावहाइरियाणं महिमाए मिलियाणं लेहो पेसिदो। लेह-ट्ठिय-धरसेण-वयणमवधारिय तेहि वि आइरिएहि वे साहू गहणधारणसमत्था धवलामलबहुविह-विणयविहूसियंगा सोलमालाहरा गुल्येसणा-सणतित्ता देसकुलजाइसुद्धा सयलकलापारया तिक्लुत्ता बुच्छियाइरिया अंधविसयवेण्णयडादो पेसिवा । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ६७ २. तेसु आगच्छमाणेसु रयणीए पच्छिमे भाए कुटु-संख-वण्णा सव्वलक्खणसंपुग्णा अप्पणो कय-हिप्पयाहिणा पाएसु णिसुठिय-पदियंगा वे बसहा सुमिणंतरेण धरसेण-मडारएण विट्ठा। एवंविह सुमिणं बढ ण तु?ण धरसेणाइरिएण 'जयउ सुय-देवदा' त्ति संलवियं । तद्दियसे चेय ते दो विजणा संपत्ता धरसेणारियं । तदो धरसेणमयवदो किदियम्मं काऊण पोणि दिवसे बोलाविय तरिय-दिवसे विणएण धरसेण-भडारओ तेहिं विण्णत्तो-'अपेण Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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