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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और
उसका वाङ् मय
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आगम-श्रत विच्छिन्न हो चुका था । बहुत कम अवशिष्ट रह पाया था । उस समय आचार्य धरसेन उसके संवाहक थे ।
नन्दि - संघ की प्राकृत- पट्टावली में प्राचार्य धरसेन को आचारांग का पूर्ण ज्ञाता कहा गया है । धवलाकार ने उन्हें प्रगों तथा पूर्वी के एक देश का ज्ञाता कहा " है । जैसा भी रहा हो, वस्तुतः वे एक विशिष्ट ज्ञानी आचार्य थे, साथ-ही-साथ विशिष्ट साधक भी । वे सौराष्ट्र के अन्तर्गत गिरिनगर की चन्द्र नामक गुफा में विशिष्ट ध्यान-साधना में संलग्न थे । उन्होंने सोचा – जो विशिष्ट श्रुत उन्हें प्राप्त है, वह कहीं उनके बाद लुप्त न हो जाये, योग्य एवं अधिकारी पात्र को दिया जाना चाहिए। उन्होंने महिमानगरी के मुनि- सम्मेलन (संभवत: तब वहां कोई वैसा सम्मेलन चल रहा हो ) को पत्र प्रेषित किया तथा अपनी भावना उन तक पहुंचाई। इस प्रसंग का उल्लेख धवला - टीकाकार आचार्य वीरसेन ने निम्नांकित रूप में किया :
" ग्रन्थ अर्थात् अवशिष्ट श्र ुत-ज्ञान, जो उन्हें स्वायत्त है, का कहीं उच्छेद न हो जाये, यह सोचकर आचार्य धरसेन ने जो सौराष्ट्र देश में गिरिनगर नामक शहर की चन्द्र गुफा में स्थित थे, जो अष्टांग महानिमित्त के पारगामी थे, अर्हत् प्रवचन के प्रति जिनका वात्सल्य था, महिमानगरी में सम्मिलित दक्षिणापथ के आचार्यों के पास लेख भेजा । आचार्य धरसेन द्वारा लेख में अभिव्यक्त वचन को व्यवधारित कर उन्होंने दो स्थित वेणा नदी के तट से गिरिनगर की ओर रवाना किया, जो (वे दो साधु) श्रुत के ग्रहण-धारण में सक्षम थे, उज्जवल - निर्मल विनयाचार से विभूषित थे, शील रूपी माला धारण किये हुए थे, जिनके लिए गुरु का निर्देश भोजनवत् तृप्तिप्रद था, जो देश, कुल एवं जाति से शुद्ध थे, समग्र कलाओं के पारगामी थे, अपने आचार्य से तीन बार पूछकर
साधुओं को आन्ध्र
१. पंचसये
पणसेठे अंतिम जिण-समय- जादेसु । उप्पणा पंच जणा इयंगधारी मुणेयव्वा ।। १५ ।।
अहिवल्लि माघनंदि य धरसेणं पुण्ययंत भूदबली ।
उडवीi इगवीसं उगणीसं तीस वीस वास पुणो ॥ १६ ॥
२. तदो सव्वेसिमंगपुव्वाणमेगदेसो आइरिय-परंपराए आगच्छमाणो घरसेणाइरियं संपत्तो ।
- षट्खण्डागम खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ०६७
३. जिसे आजकल गिरनार कहा जाता है ।
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