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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [६०३
लगभग इसी प्रकार की शब्दावलि में इसी भाव का निरूपण करते हुए वशवकालिक में कहा गया है :
"कहं चरे कहं चिट्ठ, कहमासे कहं सए । कहं भूञ्जन्तो भासन्ती, पावं कम्मं न बंधई ॥ जय चरे जयं चिट्ठ, जयमासे जयं सऐ।
जयं भुञ्जन्तो भासन्तो, पावं कम्मं न बंधई ॥" दिगम्बर-परम्परा-सम्मत आचारांग की भाषा जैन शौरसेनी है तथा श्वेताम्बर-सम्मत दशवकालिक की भाषा अर्द्धमागधी। उद्धत गाथानों में केवल इतना-सा भाषात्मक
इसी प्रकार दिगम्बर परम्परा के उत्तरवर्ती साहित्य भगवती-आराधना, मूलाचार आदि ग्रन्थों के वर्ण्य विषय तथा वहां प्रयुक्त गाथाएं वृहत्कल्प-भाष्य, आवश्यक नियुक्ति, पिण्ड-नियुक्ति, मरण-समाधि, भक्त-परिज्ञा, संस्तारक प्रादि श्वेताम्बर-साहित्य से अनेक स्थलों पर मिलती है।
षट्खण्डागम : महत्व द्वादशांग वाङमय के संबंध में दिगम्बर-चिन्तन-धारा को प्रस्तुत करने के अनन्तर अब हम उस महत्वपूर्ण ग्रन्थ की चर्चा करने जा रहे हैं, जो षट्खण्डागम के नाम से विश्रुत है, दिगम्बर-परम्परा में, जिसे द्वादशांग श्रुत से सीधा सम्बद्ध माना जाता है । इसकी रचना शौरसेनी प्राकृत में सूत्रात्मक शैली में हुई है।
समग्र दिगम्बर-सम्प्रदाय में षट्खण्डागम के प्रति असीम श्रद्धा, अपरिमित आदर एवं पूजा का भाव रहा है। जैन-तत्व-ज्ञान से सम्बद्ध कर्मवाद प्रभृति विषयों के गम्भीर तास्विक विवेचन की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ का असाधारण महत्व है।
গল ঈ নাম
मूल सूत्रों में तो ग्रन्थ का कोई नाम दिया हुआ प्रतीत नहीं होता। पर, इसके टीकाकार प्राचार्य वीरसेन ने धवला टीका में इसे खण्ड सिद्धान्त के नाम से संशित किया है।
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१. दशवकालिक, ४.७-८ २. तवो एवं खंड-सिद्धतं पडुच्च भूदबलि-पुप्फयंताइरिया वि कत्तारो उच्चति ।
-षदखण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ५१
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