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मागम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : २
समय साधुओं का उपाश्रय खुला देखा। शिवभूति साधुओं के पास गया। उन्हें वन्दन कर संयम-व्रत ग्रहण कराने की अभ्यर्थना की। साधुओं ने उसका सारा वृत्तान्त सुना। यह जानकर कि यह राजा का प्रिय (कृपा-पात्र) है, माता आदि पारिवारिक जनों ने इसे उन्मुक्त नहीं किया है, उन्होंने उसे दीक्षा नहीं दी। इस पर सहस्रमल्ल (शिवभूति) ने वहां रखी राख ले स्वयं अपना के श-लुचन कर डाला। यह देख मुनियों ने उसे साधु-वेश दे दिया।
__अगले दिन वे सब मुनि अन्यत्र विहार कर गये। कुछ समय बीतने पर, ऐसा संयोग बना, वे पुनः उसी नगर में आये। उन सब के आगमन की बात सुनकर राजा ने मुनि शिवभूति को एक रत्न-कम्बल प्रदान किया; क्योंकि राजा का उससे अपूर्व स्नेह था। ___ आचार्य ने यह देखा। वे शिवभूति से बोले-मुने ! इस प्रकार का बहुमूल्य वस्त्र साधुओं के लिए कल्प्य नहीं है । मार्ग आदि में इससे अनेक अनर्थ सम्भावित हैं; अतः इसे रखना उचित नहीं है। शिवभूति उस कम्बल पर आसक्त था; अत: गुरु के कथनोपरान्त भी उसने उसे छिपाकर रखा। इतना ही नहीं, प्रतिदिन भिक्षा से आकर उसे सम्हालता । उसे कभी व्यवहार में नहीं लाता। गुरु ने जब उसका वैसा व्यवहार देखा, तो सोचा कि इसकी रत्न-कम्बल पर प्रगाढ़ मूर्छा हो गई है, उसे मिटाया जाना चाहिए ।
प्राचार्य ने एक दिन, जब शिवभूति बाहर गया हुआ था, उस कम्बल के छोटे-छोटे टुकड़े करके प्रत्येक साधु को पैर पौंछने के लिए एक-एक दे दिये । शिवभूति को यह सब ज्ञात हुआ तो उसके चित्त में बड़ा कषाय उत्पन्न हुआ, पर वह कुछ बोला नहीं।
एक बार ऐसा प्रसंग बना, आचार्य प्रार्यकृष्ण उपधि - विभाग के अन्तर्गत जिनकल्प का वर्णन कर रहे थे । शिवभूति ने उस सन्दर्भ में पृच्छा की। आचार्य ने समाधान दिया। शिवभूति कषाय के प्रावेश में था, समाहित कैसे होता ?
प्रश्न : उत्त३ : असमाधान
विशेषावश्यक भाष्यकार ने इस प्रसंग में जो लिखा है, वह इस प्रकार है: "शिवभूति ने प्राचार्य से पूछा--इस समय जिन-कल क्यों नहीं संभाव्य है ?"1
१. उवहिविभागं सोउं सिवभूई अज्जकण्हगुरुमूले । जिणकप्पियाइयाणं भणइ गुरु कीस नेयाणि ॥
—विशेषावश्यक भाष्य, २५५३
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