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आगम और विपिटक : एक अनुशीलन ( जो जिन-शासन के प्रतिकूल हैं, उनके लिए धर्म, धर्म-परायण साधु तथा जिन-मत (द्वादशांगात्मक)-जैन सिद्धान्त-ये सब कषाय के निमित्त हो सकते हैं । गौशालक, संगम मादि के लिए भगधाम् महावीर भी कषाय के निमित्त हो गये थे; अतः शरीर प्रादि पदार्थ मोक्ष-साधन की मति से प्रयुक्त होने के कारण परिग्रह नहीं कहे जा सकते । उसी प्रकार वस्त्र आदि भी मोक्ष-साधन की बुद्धि से विधिवत परिग्रहीत हों तो परिग्रह कैसे माने ला सकते हैं ?"
"बहुत प्रकार से शिवभूति को समझाया गया, पर मिथ्यात्व के उदय से उसका चित्त माकुल-अस्थिर था। जिन-मत में उसकी श्रद्धा नहीं टिकी। उसने वस्त्रों का परित्याग कर दिया। उसके अनुराग से उसकी बहिन (उत्तरा नामक साध्वी) मे भी बस्त्रों का त्याग कर दिया । एक गणिका ने जब उसे उस रूप में देखा तो उसे वस्त्र पहना दिये, पर उसने पुनः उन्हें उतार दिया। फिर उस वेश्या ने उसके वक्ष-स्थल पर एक वस्त्र बांध दिया। उसे भी वह छोड़ने लगी तो उसके भाई शिवभूति ने कहा-खैर, इसे रहने दो। तब वह उसे धारण किये रही। ___ शिवभूति ने कौण्डिन्य और कोट्टवीर नामक दो शिष्यों को प्रश्नजित किया। उनसे उसकी उत्तरवर्ती परम्परा चली।"
१. जेण कसाय निमित्त जिणोऽवि गोसालसंगमाईणं ।
धम्मो धम्मपराऽवि य पडिणीयाणं जिणमयं च ॥ २५६० ॥ अह ते न मोक्खसाहणमईए गंथो कसायहेऊ, वि । वत्थाइ मोक्खसाहणमईए सुद्ध कहं गंथो ॥ २५६१ ॥
-विशेषावश्यक भाष्य २. इय पण्णविओऽवि बहुं सो मिच्छत्तोदयाकुलियभावे।
जिणमयमसद्दहंतो छडियवत्थो समुज्जाओ ॥ २६०६ ॥ तस्स भगिणी समुज्मियवत्था तह चेव तवणुरागेणं । संपत्थिया नियत्था तो गणियाए पुणो मुयइ ॥ २६०७ ॥ तीए पुणोऽवि बद्धोरसेणवत्था पुगो विछड्डत्ती। अच्छउ ते तेणं चिय समण्णुणाया धरेसी य ॥ २६०८ ॥ कोडिनकोट्टवीरे पवावेसी य दोणि सो सीसे । तत्तो परंपराफासोऽवसेसा समुप्पन्ना ॥ २६०९ ॥
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