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५३२ 1 मागम और निपिटक : एक अनुशीलन
"" इस प्रकार राजा विक्रमादित्य के मरने के १३६ वर्ष पश्चात् श्वेताम्बर-सम्प्रदाय प्रकट हुआ। जिनचन्द्र इस सम्प्रदाय का प्रमुख था । उस मूढ़ ने जैनागम के प्रतिकूलकेवली कवलाहार करते हैं , स्त्रियों का उसी (स्त्री-) पर्याय में मोक्ष हो सकता है, खाद्य मादि परिग्रह-पासक्त साधुओं का भी मोक्ष होता है- जैसे सिद्धान्तों की रचना की।"
अहापोह
रत्ननन्दी के वर्णन से ऐसा प्रकट होता है कि दुर्भिक्ष के पश्चात् वस्त्र आदि धारण किये रहने पर जो साधु अडिग रहे, उन्होंने वस्त्र तो धारण किया, पर बहुत कम । नग्नता बदस्तूर कायम रही । वे केवल उत्तरीय या ऊपर ओढ़ी जाने वाली चद्दर लपेटे रहते थे। तभी तो वलभी-नरेश लोकपाल असमंजस में पड़ गया। लगता है, उसके मन में ऐसा ऊहापोह उत्पन्न हुआ होगा---यह कैसा मत है, ये साधु नग्न भी हैं और नाममात्र का वस्त्र भी धारण किये हुए हैं , अर्थात् न तो इनमें सर्वथा नग्नता है और न यथावत्
सवस्त्रता ही।
रानी द्वारा भेजे गये श्वेत वस्त्र धारण कर लेने के बाद राजा साधुओं के प्रति श्रद्धालु हो जाता है, उनका स्वागत-सत्कार करता है । इससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि राजा को बह (अद्ध फालकतामय) वेष किसी भी परम्परा का प्रतीक या परिचायक नहीं लगा।
उपयुक्त विवेचन से यह भी अनुमान करना असंगत नहीं दीखता कि राजा के मन में नग्न और सवस्त्र दोनों प्रकार के साधुनों की कल्पना रही हो और वे अर्द्ध फालक
ततस्ते भूभृता भक्त्या पूजिता मानिता भृशम् । किमकार्यन्न कुर्वन्ति रामारागेण रञ्जिताः ।। धृतानि श्वेतवासांसि तद्दिनात्समजायत । श्वेताम्बरमतं ख्यातं ......."ततोऽद्ध फालकात् ॥
__ -भद्रबाहुचरित्र, परिच्छेद ४, श्लोक ५५-५७ मृते विक्रमभूपाले पतिशदधिए शते । गतेऽम्दानामभूल्लोके मतं श्वेताम्बराभिधम् ॥ भुनक्ति केवलज्ञानी स्त्रीणां मोक्षोऽपि तद्भवे । साधूनां च ससङ्गानां गर्भापहरणादिकम् ।। हिगागमसन्दोह-विपरीतं जिनोदितम् । परीरचत्त मूढात्मा जिनचन्द्रो गणामणी ।।
-बही, श्लोक ५२-५४
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