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मागम और बिपिटक : एक मनुशीलन
अन्वेष्टाओं द्वारा और अधिक सूक्ष्मतापूर्वक गवेषणा हो, यह वांछनीय है।
सेवान्तिक : ऋविध : दी और उपाधियाँ
श्रु तकेवली एवं देशीयाचार्य के अतिरिक्त यापनीय प्राचार्यों द्वारा अपने लिए प्रयुक्त 'विध' एवं 'सैद्धान्तिक'—ये उपाधियां और दृष्टिगत होती हैं। डा० उपाध्ये ने इस सम्बन्ध में संकेत किया है कि इन उपाधियों द्वारा उनका भाव अपने षट्खण्डागम आदि के अध्ययन का आशय व्यक्त करना रहा हो ।'
সাহায্য
यापनीय संघ भारत में खूब फला,फूला, फैला । उसके तत्त्वावधान में साहित्य-सर्जन का विराट कार्य हुअा । शताब्दियों तक यापनीयों का भारत में प्रतिष्ठापन्न स्थान रहा । पर, पाश्चर्य इतना प्रसृत, प्रतिष्ठित और समारत सम्प्रदाय समय पाकर नामशेष हो गया । न आज कहीं उमके श्रमण हैं और न कहीं उस संघ का ही नामोनिशान है। इसके अनेक कारण रहे होंगे । हो सकता है, यापनीय जिस उत्कट धर्म-भावना, तितिक्षा आदि से प्रेरित हो कार्य-रत थे, अपने अभियान की अप्रत्याशित सफलता के बाद वह सब कम होता गया हो । भक्तिवश राजाओं तथा समृद्ध भक्तजनों द्वारा उपहृत जागीरों एवं सम्पत्ति का शायद अतिरेक हो गया हो, जिससे यापनीय साधुनों की कार्योन्मुखता व रुझान ने अपनी दिशा कुछ बदल ली हो। त्याग, वैराग्य, ज्ञान एवं उपासना के स्थान पर सुविधा-प्रधान जीवन हो गया हो । फलतः लोगों में उनके प्रति रही श्रद्धा न्यून और न्यूनतर होती गई हो । ऐसी स्थिति में अनुकूल अवसर पाकर दिगम्बर एवं श्वेताम्बर-दोनों ने उच्छिन्न करने की ठान ली हो; क्योंकि अनेक बातों के साम्य के बावजूद अन्तत: वे (यामनीय) दोनों परम्पराओं के प्रतिगामी तो थे ही। इस प्रकार की अनेक संभावनाएं की जा सकती हैं। वस्तुतः यह इतिहास का विषय है। इतिहास के अध्येता एवं अनुशीलक इस पर गम्भीरता से चिन्तन एवं शोध करें, यह वांछित है ।
1. Titles like Saiddhantika, Traibi iya used by some Yapaniya Acharyas
indicate their studies of Satkhandagama etc. This point needs
further investigation. --Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, vol. LV.Poona
1974, P. 21. ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only
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