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भाषा और साहित्य ]
शौरसेन प्राकृत और उसका वाङ् मय
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दक्षिण में यापनीयों के कभी अनेक मन्दिर थे, जो उपर्युक्त संक्रान्ति-काल में दिगम्बर मन्दिरों में इस प्रकार विलीन हो गये कि आज उनमें कोई भेद नहीं किया जा सकता, जिनके सम्बन्ध में रूढ़ परम्परा - ग्रस्त दिगम्बर विद्वान् कहते थे कि यापनीयों द्वारा प्रतिष्ठित और पूजित मूर्तियों की पूजा ही नहीं करनी चाहिए ।
जगत का इतिहास कुछ ऐसा ही है, समय, परिस्थिति, मामस, अध्यवसाय को करवटें कब किधर का मोड़ लें और क्या से क्या हो जाये, कुछ कहा नहीं जा सकता ।
उपसंहार
श्वेताम्बर - दिगम्बर
श्वेताम्बर - आगमों के सर्वतोमुखी परिशीलन के सम्दर्भ में हमने के रूप में जैन संघ के विभाजन की चर्चा की। उसके प्रतिक्रिया स्वरूप प्रादुर्भूत यापनीय संघ की भी चर्चा की । यद्यपि चर्चा कुछ विस्तृत हो गई है, पर हमारा विचार है कि आगम - वाङ् मय के अस्तित्व, स्वरूप, ह्रास, आकलन, परिरक्षरण, उसके विश्लेषरण - विवेचन में प्रणीत साहित्य, उसके आधार पर सृष्ट मानस, परिगठित एवं प्रवृत्त धार्मिक अभियान आदि के सम्बन्ध में भी समीक्षात्मक दृष्टिकोण से जानना कम आवश्यक नहीं है । आगम तथा शास्त्र जीवन के लिए हैं । उनके सहारे लोक-जीवन कब, कैसा मोड़ लेता है, यह जहां सामाजिक इतिवृत्त का एक महत्वपूर्ण पहलू है, वहां आगम व शास्त्र - गर्भित विचार-: दर्शन की लोक-जीवन में सफल-विफल क्रियान्वित के इतिहास का एक ज्वलन्त पृष्ठ भी है, जो अनदेखा नहीं रहना चाहिए ।
अंग-वाङमय: विच्छेद : कुछ तथ्य
दिगम्बर- मत के अनुसार द्वादशांग वाङ् मय के विच्छेद-क्रम तथा अन्ततः वीर निर्वाण : सं० ६८३ में उसके सर्वथा विच्छेद श्रादि के विषय में पिछले पृष्ठों में यथाप्रसंग उल्लेख किया जा चुका है । यहां उस सम्बन्ध में कुछ और तथ्य उपस्थित किये जा रहे हैं ।
श्वेताम्बरों द्वारा भी स्वीकार
बारहवें अंग दृष्टिवाद के विच्छेद के सम्बन्ध में श्वेताम्बर भी सहमत हैं ही । देवगिणी क्षमाश्रमरण के बाद धारक को दृष्टि से पूर्व ज्ञान का अस्तित्व समाप्त हो गया । तित्थोगालीपन्ना प्रभृति ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में उल्लेख ' है ।
१. बोलीणम्मि सहस्से, बरिसाण वीरमोक्खगमणाओ ।
उत्तरबायगवसभे,
पुव्वगयस्स
भवे
छेदो ॥
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- तित्थोगाली पन्ना, गाथा ८०५
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