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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड । २
उनकी अपनी विशेषता लगती है । और भी इस प्रकार के अनेक विषय हैं, जिनका विद्वानों तथा अन्वेष्टाओं द्वारा परिशीलन एवं परीक्षण किया जाना चाहिए ।
श्रुतकेवली : देशीथाचार्य
शाकटायन ने अपने व्याकरण के समापन का सूचन जिस शब्दावली में किया है, वह इस प्रकार है :
" इति शाकटायनस्य कृतौ शब्दानुशासने
शाकटायन ने यहां अपने लिए श्रुत- केवली तथा देशीयाचार्य- इन दो विशेषणों का प्रयोग किया है । ऐसा लगता है, यापनीय प्राचार्य इन विशेषरणों द्वारा इतर जैन परम्परानों से अपना पार्थक्य ज्ञापित करते थे ।
श्री केवल देशीयाचार्यस्य
डा० उपाध्ये ने सिद्धसेन दिवाकर (वि० ५वीं शती) के सम्बन्ध में भी ऐसी कल्पना की कि बहुत सम्भव है, वे यापनीय मत के आचार्य 1 रहे हों । डा० उपाध्ये का कहना है कि इसीलिए सम्भवतः आचार्य हरिभद्र ने उन्हें श्रुत- केवली कहा हो ।
उमास्वाति का सम्प्रदाय
तत्त्वार्थ सूत्र के रचनाकार प्राचार्य उमास्वाति को भी एक दिगम्बर- शिलालेख * में श्रुत-केवली व देशीय कहा है । उमास्वाति के सम्बन्ध में यह संभावना की जाती है कि वे शायद यापनीय मत से सम्बद्ध रहे हों । स्वर्गीय पं० नाथूरामजी प्रेमी ने अपनी जैन साहित्य और इतिहास नामक पुस्तक में इसकी विशद चर्चा की है तथा उमास्वाति के यापनीय मत से सम्बद्ध होने के कारण भी उपस्थित किये हैं ।
"
1. Dr. Upadhye's Introduction to the Siddhasena Divakara's Nyaya Vatara and other works. Published by Jain Sahitya Vikasa Mandala, Bombay 1971.
२. तत्त्वार्थ सूत्रकर्तारमुमास्वातिमुनीश्वरम् ।
श्रुतकेवलिदेशीयं वन्देऽहं गुणमन्दिरम् ||
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- शिलालेख संख्या ४६, नगर ताल्लुका
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