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५७२] मागम और विपिटक । एक अनुशीलन [जार
कहा नहीं जा सकता, वे गण उस सम्प्रदाय की किसी केन्द्रीय प्रभुसत्ता के अन्तर्गत थे या सर्वथा स्वतन्त्र । वे केवल व्यवस्था की दृष्टि से पृथक् हुए या सैद्धान्तिक या प्राचारसम्बन्धी भेद पड़ जाने से वैसा हुआ, कुछ स्पष्ट नहीं है, पर, इतने सारे गणों के अस्तित्व से यह तो स्पष्ट है कि यापनीय संघ का कार्य-क्षेत्र या प्रसार-क्षेत्र बहुत विस्तार पा चुका था।
থানীখ অাশা : অাখি অাহণ : ইমাহ-আলম
यापनीय संघ के आचार्यों ने साहित्य को महान् सेवाएं की। उन्होंने बड़े महत्वपूर्ण एवं मार्मिक ग्रन्थ रचे । कारण यह था, जैसा कि कहा गया है, भारत में विशेषतः दक्षिण भारत में उनके उत्कर्ष का एक महत्वपूर्ण काल आया, जब वे शासकों, सम्भ्रान्त लोगों तथा जन-साधारण पर पूरी तरह छा गये । उनकी बड़ी प्रशस्ति थी। राजा और प्रजा का उनके प्रति बहुमान एवं आदर था। उनके अनेक मन्दिरों के पीछे बड़ी-बड़ी जागीरें थीं, जिनके कारण वहां निर्वाह-सम्बन्धी सुविधाएं एवं अनुकूलताएं थीं। यापनीय मुनि विद्याव्यसनी थे । फलतः उनके स्थान विद्या के महत्वपूर्ण केन्द्र बन गये । विद्याध्ययन एवं साहित्य-सर्जन का शताब्दियों तक एक सुन्दर क्रम वहां चलता रहा ।
यहाँ कतिपय प्रमुख यापनीय आचार्यों तथा उन द्वारा अपने साहित्य में किये गये श्वेताम्बर-आगमों के उपयोग के सन्दर्भ में कुछ चर्चा करेंगे, जिससे इस सुतरां ज्ञातव्य विषय पर स्पृहणीय प्रकाश पड़ सके ।
शिवार्य, जिन्हें शिवकोटि भी कहा जाता है, द्वारा रचित आराधना दिगम्बर-परम्परा का प्राचीन ग्रन्थ माना जाता है। इसे भगवती आराधना भी कहते हैं । यह प्राचार-प्रधान ग्रन्थ है । इसमें सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र तथा सम्यक् तप-इन चार आराधनाओं का विशद विश्लेषण है।
क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी ने जैन सिद्धान्त कोश में शिवकोटि (शिवायं) का समय ईसा की
the Ganabheda shows, were becoming more prominent in Karnat
aka and round about.
-Annals of Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. LV, Poona 1974, Page 17.
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