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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाममय
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সবা । হিসাব।
बेलगांव जिले के अन्तर्गत कागवाड़ नामक स्थान में एक जैन मन्दिर के भू-गर्भ-गृह (भोहरे) में भगवान् नेमिनाथ की एक विशाल प्रतिमा है। उसके निकीधिका-प्रस्तर पर एक लेख है । वहां प्रकित तिथि के अनुसार यह शिलालेख १३९४ ई० सन् का है। उसमें याफ्नीय संघ तथा पुनागवृक्षमूल के प्राचार्य नेमिचन्द्र, धर्मकीति तथा नागचन्द्र का उल्लेख है । यापनीय आचार्य नेमिचन्द्र वहां 'तुलुव-राज्य-स्थापनाचार्य' के रूप में अभिहित किये गये हैं। ___ इस वर्णन से यह और स्पष्ट होता है कि दक्षिण के राजवंशों पर कभी इन पायनीय आचार्यों का बड़ा प्रभाव था। राज्यों के महत्वपूर्ण घटना-क्रमों के पटाक्षेप के पीछे इन आचार्यों की शक्ति और प्रभुत्व महत्वपूर्ण भूमिकाएं अदा करते थे। नेमिचन्द्र का 'तुलुवराज्य-स्थापनाचार्य' विशेषण यापनीय प्राचार्यों के इस प्रकार के प्रभावक व्यक्तित्व का सूचक है।
प्रस्तुत शिलालेख में यापनीय संघ के साथ-साथ जो पुन्नागवृक्ष-मूलगरण का उल्लेख हुना है, वह और कोई नहीं, यापनीय संघ का ही एक विशेष भेद था।
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जब कोई सम्प्रदाय खूब विस्तीर्ण और व्यापक हो जाता है, तब उसकी अनेक शाखाएं तथा भेदोपभेद निर्मित हो जाते हैं । यापनीय संघ भी समय पाकर काफी फैल गया था। फलतः वह अनेक गणों में विभक्त होता गया। डा० उपाध्ये ने इस सम्बन्ध में चर्चा करते हुए कुमुलिगण (कुमुदिगण), (कोटि), मडुवगण, कण्दूर या काणूरगण, पुन्नागवृक्ष-मूलगण, वन्दियूरगण, कारेयगण, नन्दिगच्छ तथा मैलपान्वय का उल्लेख किया है तथा यह भी संकेत किया है कि यापनीय मत क्रमशः कर्नाटक तथा उसके इर्द-गिर्द प्रसार पाता गया।
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..."The Yapaniya Sangh is associated with ganas like Kumuligana (or Kumudigana), (Koti), Maduvagana, Kandura or Kanuragana, Punnagavriksamulagana (also linked with Mula Sangha) Vandiyuragana, Kareyagana and Nandigaccha and Mailapanvaya. This Contemination with different ganas indicates that the Sangha gradually got itself expressed through ganas which, as account of
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