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भावा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय
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दक्षिण में शुरू से ही दिगम्बर-मत का बहुत प्रचार था । दिगम्बर - बहुल क्षेत्र में यापनीयों को अधिक सफलता मिलने का एक विशेष कारण था । यद्यपि दिगम्बरों ने यापनीयों को जैनाभास या प्रच्छन्न श्वेताम्बर मामा, पर, फिर भी वेष के अतिरिक्त नग्नमूर्ति-पूजा, बाह्य चर्या आदि अनेक बातों में दिगम्बरों से उनका नैकटय था । श्वेताम्बर अंग-वाङमय की स्वीकार करने का अभिप्राय स्त्री-मुक्ति, केवलि-भुक्ति जैसे दार्शनिक विषयों में श्वेताम्बरों जैसे विचार रखना था । दार्शनिक विचारों को गहराई तक बहुत कम लोग पहुंचते हैं; क्योंकि वह प्रकृष्ट प्रज्ञा और चिन्तन-सापेक्ष है। अधिकांश लोग तो बाह्य परिवेश, स्वरूप, चाल-ढाल आदि देखते हैं। यों उनका दिगम्बरों में प्रवेश अपेक्षाकृत सरल था । अपने मत का प्रसार करने की दृष्टि से दक्षिण यापनीयों को बहुत उपयुक्त क्षेत्र लगा हो । वे कार्यरत हो गये हों । खूब प्रयत्नशील रहे हों ।
उस समय प्रचलित दिगम्बर-सम्प्रदाय के होते हुए भी यापनीयों का दक्षिण में प्रभाव बढ़ने लगा । उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि यहां के दिगम्बर मुनि स्थितिपालक अधिक रहे हों । यापनीय किमी अपेक्षा से क्रान्तिकारी थे। अधिकांश श्वेताम्बर नागमों को प्रामाणिक मानने की घोषणा करना, तब और विशेषतः दिगम्बर क्षेत्र में कोई साधारण कार्य नहीं था । वास्तव में यह एक साहसिक कार्य था । इस प्रकार का साहस करने वालों के प्रति उबुद्धचेता जनों में स्वतः एक विशेष आकर्षण उत्पन्न होता है । अतः तब वहां दिगम्बर- मतानुयायी जन समुदाय ने उन्हें दिगम्बर-सम्प्रदाय का ही एक क्रान्तिकारी परिवर्तित रूप माना हो । क्रान्त-द्रष्टा दिगम्बर मुनियों के रूप में उनकी अपेक्षाकृत अधिक प्रतिष्ठा हुई हो ।
प्रतिष्ठा : राज-सम्मान
इस प्रकार के अनेक प्रमाश प्राप्त हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी से चवदहवीं शताब्दी तक यह मत भारत में ससम्मान जीवित था । कर्नाटक प्रदेश में कभी यह बहुत प्रतिष्ठित एवं राज- मान्य रहा । श्राज के धारवाड़, बेलयांव, गुलबर्ग तथा कोल्हापुर आदि जिले इसके मुख्य प्रचार क्षेत्र थे ।
कुछ महत्वपूर्ण दान-पत्र
डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपने एक लेख में यापनीयों के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण दान-पत्र आदि की चर्चा की है, जिनसे दक्षिण में यापनीयों की सुदृढ़ एवं सम्मानित स्थिति का पता चलता है । डा० उपाध्ये ने लिखा है: "कदम्बवंशीय मृगेश वर्मन् ( ४७५-४९० ई० )
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