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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
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सुप्रसिद्ध व्याकरण सिद्धहैमशब्दानुशासन पर भी उसका प्रभाव है, उसके परिशीलन से ऐसा प्रकट होता है । पठन-पाठन की दृष्टि से शाकटायन व्याकरण दिगम्बर-समाज में काफी समाहत रहा है।
शाकटायन ने अपने व्याकरण के विभिन्न सूत्रों की वृत्ति में तद्बोधित प्रक्रियाओं के उदाहरण-स्वरूप स्थान-स्थान पर श्वेताम्बर-आगम-वाङमय की ओर जो संकेत किये हैं, उनसे आगमों के प्रति उनकी निष्ठा तथा आदर प्रकट होता है। यदि वे दिगम्बर-परम्परा के होते तो ऐसा कभी सम्भव नहीं होता; अतः मलय गिरि द्वारा उन्हें 'यापनीययतिग्रामाग्रणी' के विरुद से विशेषित किया जाना सर्वथा संगत प्रतीत होता है।
शाकटायन व्याकरण के उक्तविध उदाहरणों में से कुछ निम्नांकित हैं : "एतकमावश्यकमध्यापय।"1 "इममावश्यकमध्यापय।" "प्राम्नाती द्वादशाङगे।" "सूत्राण्यधीष्व ।" "षड्जीवानिकायमधीते । स पिण्डैषणामधीते ।" "भद्रबाहुक प्रोक्तानि भाद्रबाह्वाणि उत्तराध्ययनानि ।' "अथ त्वं सूत्रमधीष्व ।"7 "अथ त्वमनुयोगमाघत्स्व ।"8 "भवान् खलु छेदसूत्र वहेत् ।" "नियुक्तीरधीष्व ।"10
१. शाकटायन व्याकरण, १.२.२०३
२. वही, १.२.२०४ ३. वही, १.३.१७१ ४. वही, १.४.१२० ५. वही, २.१.१८ ६. वही. ३.१.१६९ ७. वही, ४.३.२८८ ८. वही, ४.३.२८९ ९. वही, ४.४.१३३ १०. बही, ४.४.१४०
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