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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङ् मय
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यदि महावीर की परम्परा में जिन - कल्पी और स्थविर-कल्पी दोनों ही प्रकार के साधु होते तो उन्हें स्वयं समाधान हो जाता ।
एक सम्भावना और की जा सकती है, भगवान् महावीर परम प्रभावक थे । उनसे उस समय का धार्मिक जगत् बहुत प्रभावित था । पार्श्व - परम्परा के श्रमरण महावीर के संघ में सम्मिलित होने को आकृष्ट हुए हों । यों महावीर के अनुयायी श्रमणों तथा पाश्र्वंपरम्परा के भ्रमणों के समन्वय और सम्मिलन का प्रश्न उपस्थित हुआ हो । कुछ पावपि - त्यिक श्रमरण अचेलकता स्वीकार करने को तैयार हो गये हों। उनमें से कुछ तब भी वैसा वाहते रहे हों कि वे सवस्त्र रहें; क्योंकि शायद वे अपने में उतनी दृढ़ता न संजोये हुए हों कि वे निर्वस्त्र रह सकें । अतः एक कठिनाई उपस्थित हुई. जिसके समाधान में जिनकप तथा स्थविर - कल्प के रूप में श्रमणाचार की प्रतिष्ठा की गई। तदनुसार पार्श्व- परम्परा के अधिकांश श्रमरण महावीर के संघ में मिल गये। जिन - कल्प या स्थविर - कल्प - जिनको जैसा रुचा, स्वीकार करते गये । अतएव श्वेताम्बर - आगम-वाङ् मय द्वारा दोनों कल्प समर्थित हैं । इस सम्भावना का स्वीकार जैन परम्परा के तत्व स्रोत की मौलिक एकता के विश्वास पर आघात करता है ।
दिगम्बर तो महावीरकालीन द्वादशांगी का सर्वथा विच्छेद मानते ही हैं, श्वेताम्बरों के अनुसार भी महावीर के पूर्व के साहित्य की कोई परम्परा श्राज प्राप्त नहीं है; अतः महावीर से पूर्व जैन संघ की क्या स्थिति थी, यह देखने के लिए केवल अनुमान एवं सम्भावनाएं ही रह जाती हैं । कहीं ऐसा तो नहीं हुआ हो, महावीर ने तितिक्षा, वैराग्य और तपश्चर्या को अधिकाधिक बल प्रदान करने के लिए जिन कल्प पर ही विशेष बल दिया हो । तदनुसार सम्भवतः वेशी और गौतम के संवाद के प्रसंग तथा महावीर के यहां दीक्षित साधु लगभग सब के सब जिन - कल्पी रहे हों । अतएव उस समय पार्श्वपत्यिकों और महावीर के श्रमणों के सम्पर्क का प्रसंग श्रावस्ती में बना, तब महावीर के श्रमणों के मन में स्थविर - कल्प का ध्यान हीन रहा हो । वैसी ही बात पार्श्वपत्यिकों के लिए जिन - कल्प के सम्बन्ध में हैं । वे सवस्त्र थे । उनके यहां कोई निर्वस्त्र था ही नहीं; अतः साधुत्रों के जिन - कल्पाचार या नाग्न्य जैसी कल्पना उनकी भी कैसे रहती ।
इसका तात्पर्यं यों समझा जा सकता है- महावीर से पूर्व अर्थात् पार्श्व के समय जिन - कल्प लुप्त प्रायः था महावीर ने अत्यधिक तपोमूलक, दारुरण - परिषह- सहिष्णुतामय श्रमण जीवन को विशेष बल एवं विकास देने के लिए जिन - कल्प पर विशेष जोर दिया । पर, आगे चलकर समन्वय की दृष्टि से ऐसा आवश्यक प्रतीत हुआ कि केवल एक ही
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