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भाषा और साहित्य ]
शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय
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उल्लेख है । इन्द्रमन्दी के अनुसार जिस प्रकार श्वेताम्बर आदि सच्चे जैन नहीं हैं, उनमें जैनत्व का आभास मात्र है, वे केवल कहने भर को जैन हैं, उसी प्रकार यापनीय भी उसी रणी में आते हैं । उनमें वास्तविक जैनत्व नहीं है ।
श्रुतसागर द्वारा विश्लेषया
श्रुतसागर (विक्रमाब्द १६ वीं शती) ने इन्द्रमन्दी द्वारा अभिहित उपर्युक्त पांच जैनाभासों का विश्लेषण करते हुए लिखा है : "तं जैनाभासा आहारदानादिकेऽपि योग्या न भवन्ति, कथं मोक्षस्य योग्या भवन्ति । गोपुच्छिकानां मतं यथा, उक्तं च- हत्थीगं पुरण दिक्खा खुल्ललोयस्स वीरचरियस' । कक्कसकेसगाहणं छट्ठ ं च गुणव्वदं नाम ।। श्वेतवाससः सर्वत्र भोजनं गृह, रान्ति प्रासुकं -मांसभक्षिरणां गृहे दोसो नास्तीति वर्णकोपः कृतः । तन्मध्ये श्वेताम्बराभासा उत्पन्नास्ते त्वतीव पापिष्ठा देवपूजादिकं कलि पापकर्मेदमिति कथयन्ति मण्डलवत् सर्वत्र भाण्ड - प्रक्षालनोदकं पिबन्ति — हत्यादि बहुदोषवन्तः । द्राविड़ ।: सावच ं प्रासुकं च न मन्यन्ते, उद्भोजनं निराकुर्वन्ति । यापनीयास्तु, वेसरा हवोभयं मन्यन्ते, रत्नत्रयं पूजयन्ति कल्पं च वाचयन्ति स्त्रीणां तद्भवे मोक्ष, केविलजिनानां कवलाहारं, परशासने सग्रन्थानां मोक्षं च कथयन्ति । निष्पिच्छिका मयूरपिच्छादिकं न मन्यते । "2
श्रुतसागर के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि कल्पसूत्र का हीनतापूर्ण चित्र उपस्थित करना चाहते हैं । संस्कृत में वेसर का अर्थ खच्चर' है ।
गुणारत्न द्वारा चर्चा
याकिनी - महत्तरा - सून् श्राचार्य सूरि (वि० ७५० - ८२७) द्वारा रचित षड्दर्शनसमुच्चय पर गुणरत्न (वि०१४०० से १४७५ ) की तर्क रहस्य - दीपिका नामक टीका है । षड्दर्शनसमुच्चय के चतुर्थ अधिकार के प्रारम्भ में टीकाकार ने जैन मत के अन्तर्गत लिंग, वेष, आचार आदि का विवेचन किया है। वहां श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैनों के दो भेद बतलाते हुए उन्होंने प्रसंगोपात्त रूप में दिगम्बरों का इस प्रकार वर्णन किया है : "दिगम्बराः
१. गोपुच्छकः श्वेतवासा, द्रविड़ो यापनीयकः ।
निष्पिच्छश्चेति पञ्चैते, जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ॥
२. षट्प्राभृत टीका, पृ० ११
३. संस्कृत - हिन्दी - कोश, वामन शिवराम आप्टे, पृ० ९७८
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—नीतिसार, १०
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