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आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
"प्राचार्य शान्ति का जीव, जो व्यन्तर रूप में विद्यमान था, उनके लिए अनेक प्रकार - तुम लोगों को जैन धर्म प्राप्त है। तुम मिथ्यात्व
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का उपद्रव करने लगा । वह उनसे कहताके मार्ग पर मत चलो ।
वैसे सुख-सुविधा पूर्ण प्रचार को छोड़ देना तो कहां शक्य था, पर वे बहुत भयभीत हो गये । वे उस व्यन्तर- देव की सब प्रकार के (पूजापेक्षित) द्रव्यों से प्रष्टविध पूजा करने लगे ।
यों जिनचन्द्र ने तब जो पूजा की रचना की, वह श्राज भी प्रवृत्त है । सबसे पहले उसी व्यन्तर के नाम से पूजा की जाती है । वह व्यन्तर श्वेताम्बर - सम्प्रदाय का पूजनीय कुलदेव है ।" यह पथ भ्रष्ट श्वेताम्बरों की उत्पत्ति का वर्णन है ।
सारांश
दर्शनसार तथा भावसंग्रह — दोनों के रचयितानों का नाम देवसेन है, पर दोनों भिन्नभिन्न व्यक्ति हैं । दर्शनसार की ग्यारहवीं गाथा और भावसंग्रह की बावनवीं गाथा, जिनसे श्वेताम्बर मत के प्रादुर्भाव का वर्णन शुरू होता है, लगभग समान -सी हैं। गाथा के उत्तराद्ध के शब्दों के स्थानिक क्रम में थोड़ा-सा अन्तर है, स्वरूप में नहीं । नहीं कहा जा सकता, भावसंग्रहकार ने दर्शनसार से यह गाथा ली या दर्शनसार के लेखक ने भावसंग्रह से । कुछ लोग कल्पना करते हैं, शायद भावसंग्रह से यह गाथा ली गई हो, तदनुसार भावसंग्रह सम्भवतः दर्शनसार से पूर्व रचित हो । पर जैसा चाहिए, साधक प्रमाण प्राप्त नहीं है ।
वैसा कोई ठोस,
दोनों ग्रन्थों में वरिणत घटना क्रम का उत्स भिन्न प्रतीत नहीं होता । दर्शनसार में
१. इयरो वितरदेवो संति लग्गो उवद्दवं काउं ।
जंपइ मा मिच्छत गच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥ ७२ ॥ मोएहि तस्स पूआ अट्ठविहा सयलदध्वसंपुष्णा ।
जा जिणचंद - रइया सा अज्ज वि विणिया तस्स ॥ ७३ ॥ अज्ज वि सा बलिया पढमयरं दिति तस्स णामेण । सो कुलदेवो उत्तो सेवडसंघस्स पुज्जो सो ॥ ७४ ॥ २. इय उप्पत्ती कहिया सेवडयाणं च मग्गभट्टाणं । एच्चो उड़ढं वोच्छं णिसुणह अण्णाणमिच्छत्त ॥ ७५ ॥
- भावसंग्रह
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