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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय । ४९५ प्रत्याख्यान, महा-प्रत्याख्यान, मरण-विभक्ति, मरण-विशोधि, आराधना प्रभृति अनेकविधि श्रत-समुदय के आधार पर इस प्रकीर्णक का सर्जन हुआ है।
गुरु और शिष्य के संवाद के साथ इस ग्रन्थ का प्रारम्भ होता है। शिष्य को समाधिमरण के सम्बन्ध में जिज्ञासा होती है। गुरु उसके समाधान में आराधना, आलोचना, संलेखना, उत्सर्ग, अवकाश, संस्तारक, निसर्ग, पादोपगमन आदि चौदह द्वारों के माध्यम से समाधि-मरण का विस्तृत विश्लेषण करते हैं ।
अनशन-तप की व्याख्या, संलेखना-विधि, पण्डित-मरण के स्वरूप आदि का इस प्रकीर्णक में समावेश है, जो आत्म-साधकों के लिए केवल पठनीय ही नहीं, आन्तरिक दृष्टि से भी विचारणीय है । प्रासंगिक रूप में इसमें उन महापुरुषों के दृष्टांत उपस्थित किये गये हैं, जिन्होंने परिषहों को समभाव से सहते हुए पादोपगमन आदि तप द्वारा सिद्धि प्राप्त की । धर्म-तत्वोपदेश के सन्दर्भ में और भी अनेक दृष्टान्त उपस्थित किये गये हैं । बारह भावनाओं के विवेचन के साथ यह प्रकीर्णक समाप्त होता है ।
दश प्रकीर्णकों पर यह संक्षिप्त ऊहापोह है। इनके अतिरिक्त और भी कतिपय प्रकीर्णक हैं, जिनमें ऋषि-भाषित, तीर्थोद्गार-परिज्ञा, आजीव-कल्प, सिद्धप्राभृत, आराधना-प्रताका, द्वीप-सागर-प्रज्ञप्ति, ज्योतिष-करण्डक, अंग-विद्या तथा योनि-प्राभृत; आदि उल्लेखनीय हैं ।
उपसंहार
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय द्वारा मुख्यतया निम्नांकित पैंतालीस पागम स्वीकृत हैं, जिनका पिछले पृष्ठों में विश्लेषण किया गया है : अंग-११, उपांग-१२, छेद-६; मूल-४, नन्दी-अनुयोगद्वार-२, प्रकीर्णक-१० । कुल ४५ । अन्य प्रकीर्णक ग्रन्थों के मिलाने पर इनकी संख्या चौरासी तक हो गयी। किसी समय श्वेताम्बर मूर्तिपूजक * सम्प्रदाय के गच्छों की संख्या भी चौरासी थी। हो सकता है, इस संख्या ने भी वैसा करने की प्रेरणा दी हो।
श्वेताम्बर सम्प्रदायों के अन्तर्गत स्थानकवासी सम्प्रदाय तथा तेरापंथ सम्प्रदाय द्वारा उपर्युक्त पैंतालीस आगमों में बत्तीस आगम प्रामाणिक रूप में स्वीकार किये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं:
अंग-११
उपांग-१२
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