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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
गाथाओं में विभक्त है । इसमें तिथि, वार, करण, मुहूर्त्त, शकुन, लग्न, नक्षत्र, निमित्त आदि ज्योतिष सम्बन्धी विषयों का विवेचन है । घण्टे के अर्थ में यहां होरा शब्द का प्रयोग हुआ है ।
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C. देविंद -थय (देवेन्द्र - स्तव)
एक श्रावक चौबीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हुआ भगवान् महावीर की स्तवना करता है । तब श्रावक की गृहिणी अपने पति से इन्द्र आदि के विषय में जिज्ञासा करती है । वह श्रावक तब कल्पोपपन्न तथा कल्पातीत देवताओं आदि का वर्णन करता है । यही सब इस प्रकीर्णक का वर्ण्य विषय है ।
खण्ड : २
पिछले कई प्रकीर्णकों की तरह इस प्रकीर्णक के रचनाकार भी श्री वीरभद्र कहे जाते हैं । इसमें तीन सौ सात गाथाएं समाविष्ट हैं ।
१०. मरण समाही ( मरण- समाधि)
जिससे सभी सदा भया
मरण, जिसका कभी न कभी सबको सामना करना पड़ता है, कान्त रहते हैं, जिसके स्मरण मात्र से देह में एक सिहरन सी दौड़ जाती है, को परम सुखमय बनाने के हेतु जैन दर्शन ने गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन किया है तथा उसके लिए एक प्रशस्त मार्ग-दर्शन दिया है ताकि मृत्यु मानव के लिए भीति के स्थान पर महोत्सव बन जाए । समाधि-मरण उसी का उपक्रम है ।
मानसिक स्थिरता, आत्मोन्मुखता, शुद्ध चिन्तनपूर्वक देहासक्तिवजित मरण समाधिमरण है। वहां खान-पान आदि सब कुछ सहज भाव से परित्यक्त हो जाते हैं। साधक आत्मअनात्म के भेद - विज्ञान की कोटि में पहुंचने लगता है । ऐसी ग्रन्तः स्थिति उत्पन्न हो, जीवन में यथार्थगामिता व्याप्त हो जाए, एतदर्थ चिन्तनशील जैन मनीषियों ने कुछ व्यवस्थित विधि - क्रम दिये हैं, जो उनके न केवल शास्त्रानुशीलन, अपितु उनके जीवन-सत्य के साक्षाकार से प्रसूत है । इस प्रकीर्णक में समाधि-मरण, उसके भेद आदि का इसी परिप्रेक्ष्य में तात्विक एवं विशद विवेचन है ।
कलेवर : विषय-वस्तु
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प्रस्तुत प्रकीर्णक छ : सौ तिरेसठ गाथाओं का शब्द कलेवर लिए हुए है । परिमाण में दशों प्रकीर्णक ग्रन्थों में यह सबसे बृहत् है । वर्ण्य विषय से सम्बद्ध भक्त-परिज्ञा, आतुर -
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