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WWE और साहित्]
भार्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और ओगम वाङ् मय
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ब्रह्मवर्य पालन में सदा जागरूक रहने की ओर श्रमणवृन्द को प्रेरित किया गया है । बताया गया है कि वय से वृद्ध होने पर भी श्रमण श्रमणियों के साथ वार्तालाप में संलग्न नहीं होते । श्रमणियों का संसर्ग श्रमरणों के लिए विष-तुल्य है ।
विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि हो सकता है, डढ़चेता स्थविर के चित्त में स्थिरता -- दृढ़ता हो, पर जिस प्रकार घृत अग्नि के समीप रहने पर द्रवित हो जाता है, उसी प्रकार स्थविर के संसर्ग से साध्वी का चित्त द्रवित हो जाए, उसमें दुर्बलता उभर आए। वैसी स्थिति में, जैसा कि आशंकित है, यदि स्थविर अपना धैर्य खो बैठे, तो वह ठीक वैसी दशा में आपतित हो जाता है, जैसे कफ में आलिप्त मक्षिका । अन्ततः यहां तक कहा गया है कि श्रमरण को बाला, वृद्धा, बहिन, पुत्री और दौहित्री तक का नैकट्य नहीं होने देना चाहिए ।
व्याख्या : साहित्य
प्रानन्दविमल सूरि के शिष्य श्री विजयविमल गरणी ने गच्छाचार पर टीका की रचना की । टीकाकार ने एक प्रसंग में उल्लेख किया है कि वराहमिहिर प्राचार्य भद्रबाहु के भाई थे । इस सम्बन्ध में आचार्य भद्रबाहु के इतिवृत्त के सन्दर्भ में चर्चा की जा चुकी है, यह इतिहास सम्मत तथ्य नहीं है । इतिहास पर प्रामाणिकता, गवेषणा तथा समीक्षा की दृष्टि से ध्यान न दिये जा सकने के कारण इस तरह के अप्रामाणिक उल्लेखों का प्रचलन रहा हो, ऐसा सम्भावित लगता है ।
टीकाकार ने यह भी चर्चा की है कि वराहमिहिर ने चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों का अध्ययन करके वाराही संहिता नामक ग्रन्थ की रचना की ।
८. गरिण- विज्जा (गणि- विद्या)
श्रापाततः प्रतीत होता है, इस प्रकीर्णक के नाम में आया हुआ गणि शब्द गरण के प्रधिपति या आचार्य के अर्थ में हो; क्योंकि प्राकृत में सामान्यतः गरिण शब्द का प्रचलित प्रर्थं ऐसा ही है । संस्कृत में भी गणिनु शब्द इसी अर्थ में है । समास में न का लोप होकर केवल गणि रह जाता है । वास्तव में प्रकीर्णक के नाम में पूर्वाद्ध में जो गणि शब्द है, वह गणनायक के अर्थ में नहीं है । गणि शब्द की एक अन्य निष्पत्ति इन प्रत्यय लगा कर गणना के अर्थ में गणि शब्द बनाया जाता है। है; क्योंकि प्रस्तुत प्रकीरणंक में गणना सम्बन्धी विषय वर्णित है ।
भी है । गण, धातु के यहां उसी का अभिप्रेत यह प्रकीर्णक बयासी
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