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भाषा और साहित्य ]
आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४९१ अंगना की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है : पुरिसे अंगाराए करिति त्ति अंगणाओ अर्थात् पुरुषों के अंगों में अनुराग उत्पन्न करने के कारण वे अंगनाएं कहलाती हैं ।
बारी शब्द की व्युत्पत्ति में कहा गया है : नारीसमा न मराणं अशओ सि माओ । मारियों के सदृश पुरुषों के लिए कोई अरि-शत्रु नहीं है, इस हेतु वे नारी शब्द से संज्ञित हैं ।
इन व्युत्पत्तियों से ग्रन्थकार का यह सिद्ध करने का प्रयास स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि नारी केवल कामोपकरण है । नारी को एक कुत्सित और बीभत्स भोग्य पदार्थ के रूप मैं चित्रित करने के पीछे सम्भवतः यही आशय रहा हो कि मानव काम से कामिनी से इतना भयाक्रान्त हो जाए कि उस ओर उसका आकर्षण ही मिट जाए। अस्तु, यह एक प्रकार तो है, पर, सूक्ष्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इसकी उपादेयता सन्दिग्ध एवं विवादास्पद है । प्रस्तुत प्रकीर्णक पर एक वृत्ति की रचना हुई, जिसके लेखक विजयविमल हैं ।
६. संथारंग (संस्तारक)
जो भूमि पर संस्तीर्ण या प्रास्तीर्ण किया जाए- बिछाया जाए, वह संस्तार या संस्तारक कहा जाता है। जैन परम्परा में इसका एक पारिभाषिक अर्थ है । जो पर्यन्त क्रिया करने को उद्यत होते हैं, आत्मोन्मुख होते हुए अनशन द्वारा देह त्याग करना चाहते हैं, वे भूमि पर दर्भ श्रादि से संस्तार - संस्तारक अर्थात् बिछौना तैयार करते हैं । उस पर लेटते हैं । उस संस्तारक पर देह त्याग करते हुए वे जीवन का वह साध्य साधने में सफल होते हैं, जिसके लिए वे यावज्जीवन साधना- निरत तथा यत्नवान् रहे । उस बिछौने पर स्थित होते हुए वे संसार सागर को तैर जाते हैं; अतः संस्तारक का अर्थ संसार सागर को तेरा देने वाला, उसके पार लगाने वाला करें, तो भी असंगत नहीं लगता । प्रस्तुत प्रकीर्णक में अन्तिम समय में आत्माराधना- निरत साधक द्वारा संयोजित इस प्रक्रिया का विवेचन है ।
एक सौ तेईस गाथाओं में यह प्रकीर्णक विभक्त है । इसमें संस्तारक की प्रशस्तता का बड़े सुन्दर शब्दों में वर्णन किया गया है । कहा गया है कि जिस प्रकार मणियों में वैडूर्य
१. संस्तीर्यते भूपीठे शयालुभिरिति संस्तारः स एव संस्तारकः । पर्यन्तक्रियां कुर्वदिर्दर्भा - दिर्भावरस्तरणे, तत्क्रियाप्रतिपादन रूपे प्रकीर्णकग्रन्थे ।
-अभिधान राजेन्द्र, सप्तम भाग, पृ० १९५
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