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भाषा और साहित्य ] मार्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [५०३ लोक-जीवन तथा लोक-साहित्य के गवेषणापूर्ण अध्ययन की दृष्टि से भी पूणियों का अपना अप्रतिम महत्व है । आगम-प्रन्थों के अतिरिक्त तत्सम्बद्ध साहित्य के इतर ग्रन्थों पर भी चूणियां लिखे जाने का क्रम रहा। उदाहरणार्थ, कर्म-ग्रन्थ, श्रावक-प्रतिक्रमण जसे ग्रन्थों पर भी चूणियां रची गयीं।
टोकाएं
अभिप्रेत
प्रागम ही जैन संस्कृति, धर्म, दर्शन, आचार-विचार; संक्षेप में समग्र जैन जीवन के मूल प्राधार हैं; अतः उनके आशय को स्पष्ट, स्पष्टतर और सुबोध्य बनाने की ओर जैन प्राचार्यों तथा मनीषियों का प्रारम्भ से ही प्रयत्न रहा है । फलतः जहां एक ओर नियुक्तियों, भाष्यों और चूणियों का सर्जन हुआ, दूसरी ओर टीकानों की रचना का क्रम भी गतिशील रहा । नियुक्तियों व भाष्यों की रचना प्राकृत-गाथाओं में हुई तथा चूरिणयां प्राकृतसंस्कृत-गद्य में लिखी गयौं, वहां टीकाएं प्राय: संस्कृत में रचित हुई। शब्द-सर्जन की उर्वरता, व्योत्पत्तिक विश्लेषण की विशदता तथा अभिव्यंजना की असाधारण क्षमता आदि संस्कृत की कुछ असामान्य विशेषताएं हैं, जिन्होंने जैन तथा बौद्ध लेखकों को विशेष रूप से आकृष्ट किया। फलत: उत्तरवर्ती काल में जैन तथा बौद्ध सिद्धान्त जब विद्वद्गम्य, प्रांजल तथा प्रौढ़ स्तर एवं दार्शनिक पृष्ठ-भूमि पर अभिव्यक्त व प्रतिष्ठित किये जाने लगे, तब उनका भाषात्मक परिवेश अधिकांशतः संस्कृत-निबद्ध रहा। जैन वाङमय में आचार्य सिद्धसेन के सन्मति-तर्क-प्रकरण के अतिरिक्त प्रायः प्रमाणशास्त्रीय ग्रन्थ संस्कृत में रचे गये । यही सब हेतु थे कि जैन दार्शनिक-काल के पूर्व से ही विद्वान् प्राचार्यों ने आगमों की टीकाओं की भाषा के रूप में संस्कृत को स्वीकार किया । अर्हद्-वाणी की संवाहिका होने के कारण प्राकृत के प्रति जो श्रद्धा थी, उसका इतना प्रभाव तो टीका-साहित्य में अवश्य पाया जाता है कि टीकाओं में कहीं-कहीं कथाएं मूल प्राकृत में ही उद्धृत की गयी हैं । कुछ टीकाएं प्राकृत-निबद्ध भी हैं, पर, बहुत कम ।
ঠান্ধা : সুহানী এহসহ
नियुक्तियां, भाष्य, चूणियां एवं टीकाएं व्याख्या-साहित्य के क्रमिक विकास के रूप नहीं हैं, बल्कि सामान्यतः ऐसा कहा जा सकता है कि इनका सर्जन स्वतन्त्र और निरपेक्ष रूप में अपना-अपना दृष्टिकोण लिये चलता रहा है। वालभी वाचना के पूर्व से टीकाओं
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