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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन भी यह प्रवृत्ति प्राप्त होती है।
यद्यपि सप्तमी विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय स्मिन् में भी स्म है, पर, वहां स्मं के फ मेंपरिवर्तित होने की परम्परा नहीं है। गिरनार के अतिरिक्त प्रायः सभी अभिलेखों में स्मिन् के लिए सि का प्रयोग हुआ है। उदाहरणार्थ, ब्रह्मगिरि के प्रथम लघु शिलालेख में जंबुबीपसि, भाव शिलालेख में बुधसि, धांमसि, संघसि, सांची के स्तम्भलेख में अनाससि, चतुर्दश शिलालेखों के अन्तर्गत प्रथम शिलालेख, कालसी, जोगढ़, शाहबाजगढ़ी तथा मानसेरा में महानससि तथा टोपण ( दिल्ली ) के सप्तम स्तम्भ लेख में दानविसगसि, सवसि,
१. इमिना चु कालेन अमिसा समाना मुनिसा जंबुदीपसि। ( अमुना तु कालेन अमृषा समानाः मनुष्याः जम्बूद्वीपे मृषा देवैः ।)
-ब्रह्मगिरिः, प्रथम लघु शिलालेख २. विदित वे भंते आवतके हमा बुधसि धमसि संघसीति गलवे च पसादे च ।
(विदितं वो भदन्ताः ! यावत् अस्माकं बुद्ध धर्मे संघे इति गौरवं च प्रसादः च ।। ३. .... ये संघ मोखति मिखु वा भिखुनि वा औदातानि दुसानि सनंघापयितु अनाससि
विसयेतविये। ( यः संघ भक्ष्यति भिक्षुः वा भिक्षुणी वा अवदातानि दूष्याणि संनिधाप्य अनावासे
आवासयितव्यः । ४. पुले महानससि देवानं पियसा प्रियदसिता लाजिने ; अनुदिवसं बहुनि पानसहसानि आलभियिसु......।
-कालसो पुलुवं महानससि देवानं पियस पियदसिने लाजिने अनुदिवसं बहूनि पानसतसहसानि आलभियिसु.......
-जौगढ़ पुर महनससि देवनं प्रियस प्रियदशिस रजो अनुदिवसो बहु नि प्रणशतसहस्रनि अरभियिसु ।
-शाहबाज़गढ़ी पुर महनससि देवन पिस प्रिय.."शिस रजिने अनुदिवः बहुनि प्रणशतसहस्रनि अर......"सु.......।
-मानसेरा (पुरा महानसे देवानां प्रियस्य प्रियदर्शिनः राज्ञः अनुदिवसं बहुनि प्राणशतसहस्राणि आलप्सत......")
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