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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २
तब उन्हें रहने के लिए सर्वथा गये बीते स्थान -- उपद्रव युक्त खण्डहर आदि मिलते, श्रासन भी धूल आदि से भरे और विषम मिलते ।
लाढ देश के अनार्य जन भगवान् को मारते और दांतों से काटने दौड़ते। वहां बड़ी कठिनाई से रूखा-सूखा प्रहार मिलता, कुत्ते कष्ट देते, काटने को झपटते। वहां अनेक लोगों में से कोई एक उन काटने श्राते हुए कुत्तों को रोकता । शेष तो कुतूहलवश छूछू कर कुत्तों को काटने के लिए प्रेरित करते ।
वज्रभूमि में अन्यतीर्थी' भिक्षु यष्टिका और नालिका ( शरीर- प्रमाण से चार अंगुल बड़ी लकड़ी ) रखते थे, इस पर भी कुत्ते उन्हें काटते थे ।
लाढ देश में ग्राम इतने कम थे कि सायंकाल तक चलते-चलते गांव नहीं आता था, तो वृक्ष के नीचे ठहर कर भगवान् रात बिताते ।
कितनेक अनार्य लोग गांव से बाहर निकल, सामने जा भगवान् को मारने लगते और कहते- -यहां से निकल जानो ।
लाढ देश के अनार्य जन लकड़ी, मुक्के, भाले की नोंक, ईंट-पत्थर अथवा घट के खप्पर से उन्हें मारते थे । वे कभी-कभी भगवान् के शरीर का मांस भी काट लेते । कभी धूल बरसाते । कभी भगवान् को ऊँचा उठा कर पटकते । कभी भगवान् ध्यान के लिए गोदोहासन या वीरासन में बैठ होते, तो वे धक्का देकर लुढ़का देते ।
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तितिक्षा का विस्मायक रूप
भगवान् निरोग होने पर भी अल्प भोजन करते । रोगी होने या न होने पर चिकित्सा नहीं कराते । संशोधन -- विरेचन, बमन, तेल-मर्दन, स्नान, संवाहन ( शरीर दबवाना ) तथा दन्त-प्रक्षालन - इन सबका वे त्याग किये हुए थे ।
में ध्यान करते तथा ग्रीष्म ऋतु में ताप के सामने
शिशिर ऋतु में शीतल छाया श्रतापना लेते ।
रूखे-सूखे चावल, बेर का चूर्ण, उर्द और नीरस आहार से निर्वाह करते। इन तीन पदार्थों पर वे प्राठ मास तक रहे । अनेक बार पन्द्रह-पन्द्रह दिन और मास-मास तक आहार तो क्या जल तक नहीं लेते । कभी-कभी दो-दो मास, कभी-कभी छः-छः मास तक श्राहार- पानी का सर्वथा त्याग करते । पारणे में भी सदा नीरस पदार्थ लेते । कभी-कभी दो-दो दिन के अन्तर से कभी-कभी तीन-तीन, चार-चार और पांच-पांच दिन के अन्तर से प्रहार करते ।
जब कहीं भिक्षा के लिए जाते, पशु, पक्षी तथा अन्य भिक्षु आदि को देख धीरे से निकल जाते ।
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