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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : २ श्रुत-सम्पदा के चार भेद : १. बहुश्रु तता, २. परिचितश्र तता, ३. विचित्रश्रुतता, ४. घोषविशुद्धिकारकता।
शरीर-सम्पदा के चार भेद : १. शरीर की लम्बाई-चौड़ाई का सम्यक् अनुपात, २. अलज्जास्पद शरीर, ३. स्थिर संगठन, ४. प्रतिपूर्णोन्दियता ।
वचन-सम्पदा के चार भेद : १. आदेय वचन ( ग्रहण करने योग्य वाणी), २. मधुर वचन, ३. अनिश्चित ( प्रतिबन्ध रहित , वचन, ४. असन्दिग्ध वचन ।
पाचना-सम्पदा के चार भेद : १. विचार पूर्वक वाच्य विषय का उद्देश-निर्देश करना, २. विचार पूर्वक वाचना करना, ३. उपयुक्त विषय का ही विवेचन करना, ४. अर्थ का सुनिश्चित निरुपण करना ।
मति-सम्पदा के चार भेद : १. अवग्रह-मति-सम्पदा, २. ईहा-मति-सम्पदा, ३. प्रवाय-मति-सम्पदा, ४ धारण-मति-सम्पदा ।
प्रयोग-सम्पदा के चार भेद : १. अात्म-ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग, २. परिषद्ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग ३. क्षेत्र-ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग, ४ वस्तु-ज्ञानपूर्वक वाद-प्रयोग !
संग्रह-सम्पदा के चार भेद : १. वर्षाऋतु में सब मुनियों के निवास के लिए योग्य स्थान की परीक्षा करना, २. सब मुनियों के लिए प्रातिहारिक पीठ-फलक-शय्या संस्तारक की व्यवस्वा करना, ३. नियत समय पर प्रत्येक कार्य करना, ४. अपने से बड़ों की पूजा-प्रतिष्ठा करना ।
पंचम दशा में चित्त-समाधि-स्थान तथा उसके दश भेदों का वर्णन है। षष्ठ दशा में उपासक या श्रावक की दश प्रतिमाओं का निरूपण है। उस सन्दर्भ में सूत्रकार ने मिथ्यात्व-प्रसूत अक्रियावाद तथा प्रारम्भ-समारम्भ-मूलक क्रियावाद का विस्तार से विश्लेषण करते हुए द्रोह, राग, मोह, प्रासक्ति, वैमनस्य तथा भोगषणा, लौकिक सुख, लोकषणा-लोक-प्रशस्ति प्रादि से उद्भूत अनेकानेक पाप-कृत्यों का विश्लेषण करते हुए उनके नारकीय फलों का रोमांचक वर्णन किया है।
सप्तम दशा में द्वादशविध भिक्षु-प्रतिमा का विवेचन है। जैसे, प्रथम एक मासिक भिक्ष-प्रतिमा में पालनीय प्राचार-नियमों के सन्दर्भ में विहार-प्रवास को उद्दिष्ट कर -बतलाया गया है कि एक मासिक भिक्षु-प्रतिमा-उपपन्न भिक्षु, जिस क्षेत्र में उसे पहचानने वाले हों, वहां केवल रात्रि-प्रवास कर विहार कर जाए। जहां कोई पहचानने वाला न हो, वहां एक रात, अधिक हो तो दो रात प्रवास कर जाए। ऐसा न करने पर वह भिक्षु दीक्षा-छेद अथवा परिहारिक तप के प्रायश्चित्त का भागी होता है। प्रत्येक प्रतिमा के
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