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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन श्रमणी को भलीभांति जानना चाहिए, कहीं उच्छिन्न या लुप्त न हो जाए, एतदर्थ आचार्य भद्रबाहु ने व्यवहार सूत्र और कल्प-सूत्र रचे ।
कल्प पर भद्रबाहुकृत नियुक्ति भी है, जिसकी कर्तृ'कता असन्दिग्ध नहीं है। इस पर संघदास गणी ने लघु भाष्य की रचना की। मलयगिरि ने उल्लेख किया है कि प्राचार्य भद्रबाहु की नियुक्ति तथा संघदास गणी का भाष्य; दोनों इस प्रकार परस्पर विमिश्रित जैसे हो गये हैं कि उन दोनों को पृथक्-पृथक् स्थापित करना असम्भव जैसा है । भाष्य पर प्राचार्य मलयगिरि ने विवरण की रचना की। पर, वह रचना पूर्ण नहीं थी। लगभग दो शताब्दियों के पश्चात् क्षेमकीर्ति सूरि ने उसे पूरा किया। वृहत्कल्प पर वृहद् भाष्य भी है, वह पूर्ण नहीं है, केवल तृतीय उद्देशक तक ही प्राप्य है। इस पर विशेष चूणि की भी रचना हुई।
६. पंचकप्प (पंच-कल्प)
पंचकल्प सूत्र और पंचकल्प-भाष्य; ये दो नाम प्रचलित हैं, जिनसे सामान्यतः ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः ये दो ग्रन्थ हों। पर वास्तव में ऐसा नहीं है। नाम दो हैं, ग्रन्थ एक । मलयगिरि और क्षेमकीति के अनुसार पंचका भाष्प वस्तुतः वृहत्कल्प-भाष्य का ही एक अंश है। इसकी वैसी ही स्थिति है, जैसी पिण्ड-नियुक्ति और औघ-नियुक्ति की है । पिण्ड-नियुक्ति कोई मूलतः पृथक् ग्रन्थ नहीं है, वह दशवकालिक नियुक्ति का ही भाग है। उसी प्रकार औध-नियुक्ति भी स्वतन्त्र ग्रन्थ न होकर आवश्यक-नियुक्ति का ही भाग है। विषय-विशेष से सम्बद्ध होने के कारण पाठकों की सुविधा की दृष्टि से उन्हें पृथक्-पृथक् कर दिया गया है।
वृहत्कल्प-भाष्य का अंश होने के नाते पंचकल्प सूत्र या पंचकल्प-भाष्य संघदास गणी द्वारा रचित ही माना जाना चाहिए । इस पर चूणि की भी रचना हुई।
जीयकप्पसुत्त (जीतकल्प-सूत्र)
जीन, जोय या जीत का अर्थ परम्परागत से आगत आचार, मर्यादा, व्यवस्था या प्रायश्चित्त से सम्बन्ध रखने वाला एक प्रकार का रिवाज आदि है । इस सूत्र में जैन.
A पाइअ-सह-महण्णदो, पृ० ३५८
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