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भाषा और साहित्य | आर्ष (अब मागधी) प्राकृत और आगम वाङ्मय ४८३ तथा विस्तार के परिशीलन की दृष्टि से नन्दी सूत्र का यह अंश विशेषतः पठनीय है। जिनदास महत्तर ने नन्दी सूत्र पर चूणि की रचना की। आचार्य हरिभद्र तथा प्राचार्य मलयगिरि ने इस पर टीकाओं का निर्माण किया।
অনুখীলাৰ
नन्दी की तरह यह सूत्र भी अर्वाचीन है, जो इसकी भाषा तथा वर्णन-क्रम से गम्य है। इसके रचयिता आर्य रक्षित माने जाते हैं। प्रस्तुत सूत्र में विभिन्न अनुयोगों से सम्बद्ध विषयों का आकलन है । विशेषतः संख्या-क्रम-विस्तार, जो गणितानुयोग का विषय है, का इसमें विशद विवेचन है । यह ग्रन्थ प्रायः प्रश्नोत्तर की शैली में रचित है।
सप्त स्वर
प्रसंगोपात इसमें षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत तथा निषाद संज्ञक सात स्वरों का विवेचन है । स्वरों के उत्पत्ति-स्थान के सम्बन्ध में कहा गया है कि षड्न स्वर जिह्वा के अग्र-भाग से उच्चरित होता है। ऋषभ स्वर का उच्चारण-स्थान हृदय है। गान्धार स्वर कण्ठान से निःसृत होता है। मध्यम स्वर का उच्चारण जिह्वा के मध्य भाग से होता है । पंचम स्वर नासिका से बोला जाता है। धैवत स्वर दांतों के योग से उच्चरित होता है । निषाद स्वर नेत्र-भृकुटि के आक्षेप से बोला जाता है ।
सातों स्वरों के जीव-निःसृत और अजीव-निःसृत भेद-विश्लेषण के अन्तर्गत बताया गया है कि मयूर षड्ज स्वर, कुक्कुट ऋषभ स्वर, हंस गांधार स्वर, गाय-भेड़ आदि पशु मध्यम स्वर, वसन्त ऋतु में कोयल पंचम स्वर, सारस तथा क्रौंच पक्षी धवत स्वर और हाथी निषाद स्वर में बोलता है। मानव कृत स्वर-प्रयोग के फला-फल पर भी विचार किया गया है। प्रस्तुत प्रसंग में ग्राम, मूर्छना आदि का भी उल्लेख है।
पाठ विभक्तियों की भी चर्चा है । कहा गया है, निर्देश में प्रथमा, उपदेश में द्वितीया, करण में तृतीया, सम्प्रदान में चतुर्थी, अपादान में पंचमी, सम्बन्ध में षष्ठी, आधार में सप्तमी तथा आमन्त्रण में अष्टमी विभक्ति होती है । प्रकृति, पागम, लोप, समास, तद्धित, धातु प्रादि अन्य ब्याकरण-सम्बन्धी विषयों की भी चर्चा की गयी है । प्रसंगतः काध्य के नौ रसों का भी उल्लेख हुआ है ।
पल्योपम, सागरोपम आदि के भेद-प्रभेद तथा विस्तार; संख्यात, असंपात, अनन्त
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