________________
४७४] मागम और विपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड: २ दशम अध्ययन का शीर्षक स भिक्षुः है। अर्थात् इस अध्ययन में भिक्षु के जीवन, उसकी दैनन्दिन चर्या, व्यवहार, संयमानुप्राणित अध्यवसाय, प्रासक्ति-वर्जन, अलोलुपता भादि का सजीव चित्रण है । दूसरे शब्दों में भिक्षु के यथार्थ रूप का एक रेखांकन है, जो साधक के लिए बड़ा उत्प्रेरक है। उत्तराध्ययन का पन्द्रहवां अध्ययन भी इसी प्रकार फा है । उसका शीर्षक भी यही है । दोनों का बहुत साम्य है । भाव ही नहीं, शब्द-रचना तथा छन्द-गठन में भी अनेक स्थानों पर एकरूपता है । ऐसा अनुमान करना अस्वाभाविक नहीं है कि दशवकालिक का दशवां अध्ययन उत्तराध्ययन के पन्द्रहवें अध्ययन का बहुत कुछ रूपान्तरण है।
चूलिकाएं
रति-वावथा
दशम अध्ययन की समाप्ति के अनन्तर प्रस्तुत सूप में दो चूलिकाएं हैं । पहली चूलिका रतिवाक्या है । अध्यात्म-रस में पगे व्यक्तियों के लिए भिक्षु-जीवन अत्यन्त आह्लादमय है । पर, भौतिक दृष्टि से उसमें अनेक कठिनाइयां हैं, पद-पद असुविधाएं हैं । क्षण-क्षण प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ता है। दैहिक भोग अग्राह्य हैं ही। ये सब प्रसंग ऐसे हैं, जिनके कारण कभी-कभी मानव-मन में दुर्बलताएं उभरने लगती हैं । यदि कभी कोई भिक्षु ऐसी मनः-स्थिति में प्रा जाए, वह श्रामण्य से मुंह मोड़ पुनः गार्हस्थ्य में प्रविष्ट होने को उद्यत हो जाए, तो उसे संयम में टिकाये रखने के लिए, उसमें पुनः दृढ़ मनोषल जगाने के लिए उसे जो अन्तः प्रेरक तथा उद्बोधक विचार दिये जाने चाहिए, वही सब प्रस्तुत चूलिका में विवेचित है।
सांसारिक जीवन की दुःखमयता, विषमता, भोगों की निःसारता, अल्पकालिकता, परिणाम-विरसता, अनित्यता, संयमी जीवन की सारमयता, पवित्रता, प्रादेयता प्रादि विभिन्न पहलुओं पर विशद प्रकाश डाला गया है तथा मानव में प्राणपण से धर्म का प्रतिपालन करने का भाव भरा गया है । वैषयिक भोग, वासना, लौकिक सुविधा और दैहिक सुख से प्राकृष्ट होते मानव को उनसे हटा आत्म-रमण, संयमानुपालन तथा तितिक्षामय जीवन में पुनः प्रत्यावृत्त करने में बड़ी मनोवैज्ञानिक निरूपण-शैली का व्यवहार हुआ है, जो रोचक होने के साथ शक्ति-संचारक भी है । संयम में रति-अनुराग-तन्मयता उत्पन्न करने के वाक्यों की संरचनामय होने के कारण ही सम्भवतः इस चूलिका का नाम रतिप्राक्या रखा गया हो।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org