________________
भाषा और साहित्य ] आर्ष (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४५३
इस उद्देशक में प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर तपस्वी, नव दीक्षित शैक्ष (शिष्य ), वार्धक्य आदि के कारण ग्लान ( श्रमरण ), कुल, गण, संघ तथा सार्मिक ; इन दश के वैयावृत्य-दैहिक सेवा प्रादि का भी उल्लेख है । হানা সহ থাইখাব
व्यवहार सूत्र के रचनाकार भाचार्य भद्रबाहु माने जाते हैं। उन्हीं के नाम से इस पर नियुक्ति है। पर, सूत्रकार तथा नियुक्तिकार भद्रबाहु एक ही थे, यह विवादास्पद है । बहुत सम्भव है, सूत्र तथा नियुक्ति भिन्नकर्तृक हों; इस नाम के दो भिन्न प्राचार्यों की रचनाए हों। व्यवहार सूत्र पर भाष्य भी उपलब्ध है, पर, नियुक्ति तथा भाष्य परस्पर मिश्रित से हो गये हैं। प्राचार्य मलयगिरि द्वारा भाष्य पर विवरण की रचना की गयी है। व्यवहार सूत्र पर चूरिण और अवचूरि की भी रचना हुई। ऐसा अभिमत है कि इस पर वृहद् भाष्य भी था, पर, वह आज उपलब्ध नहीं है ।
४. दसासुयक्खंध (दशाश्रुतस्कन्ध) यह छेद-सूत्रों में चौथा है। इसे दशा, प्राचार-दशा या दशाश्रु त भी कहा जाता है । यह दश भागों में विभक्त है, जिन्हें दशा नाम से अभिहित किया गया है। आठवां भाग अध्ययन नाम से संकेतित है। _प्रथम दशा में असमाधि के बीस स्थानों का वर्णन है। द्वितीय दशा में शबल के इक्कीस स्थानों का विवेचन है। शबल का अर्थ धब्बों वाला, चितकबरा या सदोष है। यहां शबल का प्रयोग दूषित पाचरण-रूप धब्बों के अर्थ में है। तृतीय दशा में प्राशातना के तेतीस प्रकार आदि का उल्लेख है ।
गाशि-सम्पदा
चतुर्थ दशा में गणी या प्राचार्य की पाठ सम्पदाओं का वर्णन है। वे आठ सम्पदाएं इस प्रकार हैं : १. आचार-सम्पदा, २. श्रुत-सम्पदा, ३. शरीर-सम्पदा. ४. वचनसम्पदा, ५. वाचना-सम्पदा, ६. मति-सम्पदा, ७ प्रयोग-सम्पदा, ८. संग्रह-मम्पदा । प्रत्येक सम्पदा के भेदों का जो वर्णन किया गया है, वह श्रमण-संस्कृति से प्राप्यायित विराट व्यक्तित्व के स्वरूप को जानने की दृष्टि से बहुत उपयोगी है; अतः उन भेदों का यहां उल्लेख किया जा रहा है।
प्राचार-सम्पदा के चार भेद : १. संयम में ध्रुब योगयुक्त होना, २. अहंकाररहित होना, ३. अनियतवृत्ति होना, ४. वृद्धस्वभावी (प्रचंचल स्वभाव वाला) होना।
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org