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४४६ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड २ विषय-वस्तु
प्रथम अध्ययन में बलदेव और रेवती के पुत्र निषधकुमार के उत्पन्न होने, बड़े होने, श्रमणोपासक बनने तथा भगवान् अरिष्टनेमि से श्रमण-प्रव्रज्या ग्रहण करने आदि का वर्णन है। उसके विगत भव तथा भविष्यमाण दो भवों व अन्ततः (दूसरे भव के अन्त में) महाविदेह क्षेत्र में सिद्धत्व प्राप्त करने का भी वर्णन है ।
यद्यपि इस अध्ययन में वासुदेव कृष्ण का वर्णन प्रसंगोपात्त है, पर, वह महत्वपूर्ण है। वासुदेव कृष्ण के प्रभुत्व, वैभव, सैन्य, समृद्धि, गरिमा, सज्जा आदि का विस्तार से उल्लेख किया गया है। वृष्णिवंश या यादव कुल के राज्य, यादववंश का वैपुल्य, आज के सौराष्ट्र के प्रागितिहासकालीन विवरण आदि के अध्ययन की दृष्टि से इस उपांग का यह भाग उपयोगी है। अन्य ग्यारह अध्ययन केवल सूचना मात्र हैं। जैसे- "इसी प्रकार (प्रथम की तरह) अवशिष्ट ग्यारह अध्ययन समझने चाहिए। पूर्व भव के नाम आदि संग्रहणी गाथा से ज्ञातव्य है । इन ग्यारह कुमारों का वर्णन निषधकुमार के वर्णन से न न्यून है और न अधिक । इस प्रकार वृष्णिदशा का समापन हुआ।" 1
एक महत्वपूर्ण सूचना
वृष्णि-दशा के समाप्त होने का कथन करने के अनन्तर अन्त में इन शब्दों द्वारा एक और सूचन किया गया है : “निरयावलिका श्रुत स्कन्ध समाप्त हुआ। उपांग समाप्त हुए । निरयावलिका उपांग का एक ही श्रुत-स्कन्ध है। उसके पांच वर्ग हैं। वे पांच दिनों में उपदिष्ट किये जाते हैं। पहले से चौथे तक के वर्गों में दश दश अध्ययन हैं और पाचवें वर्ग में बारह अध्ययन हैं। निरयावलिका श्रुत-स्कन्ध समाप्त हुआ।" 2 इस उल्लेख से बहुत स्पष्ट है, वर्तमान में पृथक्-पृथक् पांच गिने जाने वाले निरयावलिका (कल्पिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका पुष्पचूला तथा वृष्णिदशा ) ये उपांग कभी एक ही ग्रन्थ के रूप में प्रतिष्ठित थे।
१. एवं सेसा वि एकारस अज्जयणा नेयव्वा। संगहणी अणुसारेणं अहीणमहरित एक्कारस सु वि। इति वण्हिदसा सम्मत्तं ।
-वृष्णिवशा सूत्र, अन्तिम अंश । २. निरवालिया सुयखंधो सम्मतो। सम्मतारिण य उवंगाणि । निरयावलि उवंगेणं एगो
सुयखंधो पंच वग्गा पंचसु दिवसेसु उद्दिसति। तत्थ सुवयसु दस उद्द सग्ग, पंचसवग्गे बारस उद्दसगा। निरयावलि सुयखंधो सम्मतो।।
-निरयावलिया, (वहि नदसा), अन्तिम भाग
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