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भाषा और साहित्य ]
आर्ष (अर्द्धमागधी प्राकृत और आगम वाङमय [ ४४७
छेद-सूत्र
बौद्ध वाङमय में विनय पिटक की जो स्थिति है, जैन वाङमय में छेद-सूत्रों की लगभग उसी प्रकार की स्थिति है। इनमें जैन श्रमणों तथा श्रमणियों के जीवन से सम्बद्ध आचार-विषयक नियमों का विश्लेषण है, जो भगवान् महावीर द्वारा निरूपित किये गये थे तथा प्रागे भी समय-समय पर उनकी उत्तरवर्ती परम्परा में निर्धारित होते गये थे। नियम-भंग हो जाने पर साधु-साध्वियों द्वारा अनुसरणीय अनेक प्रायश्चित्त विधियों का इनमें विशेषतः विश्लेषण है।
श्रमण-जीवन की पवित्रता को बनाये रखने की दृष्टि से छेद-सूत्रों का विशेष महत्व स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि इन्हें उत्तम श्रुत कहा गया है। भिक्षु-जीवन के सम्यक् संचालन के हेतु छेद-सूत्रों का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक समझा गया है। प्राचार्य, उपाध्याय जैसे महत्वपूर्ण पदों के अधिकारी छेद-सूत्रों के मर्म-वेत्ता हों, ऐसा अपेक्षित माना जाता रहा है। कहा गया है, कोई भी प्राचार्य छेद-सूत्रों के गम्भीर अध्ययन के बिना अपने श्रमण-समुदाय को लेकर ग्रामानुग्राम विहार नहीं कर सकता।
निशीथ-भाष्य में बतलाया गया है कि छेद-सूत्र अईत्-प्रवचन का रहस्य उद्बोधित करने वाले हैं, गुह्य-गोप्य हैं । वे अल्प सामर्थ्यवान् व्यक्ति को नहीं दिये जा सकते । पूर्ण पात्र ही उनके अधिकारी होते हैं। भाष्यकार का कहना है कि जिस प्रकार अपरिपक्व घट में रखा गया जल घट को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार छेद-सूत्रों में सन्निहित सिद्धान्तों का रहस्य अनधिकारी व्यक्ति के नाश का कारण होता है। विनय-पिटक के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार की गुह्यता (गोपनीयता) की चर्चा प्राप्त होती है । मिलिन्व-प्रश्न में उल्लेख है कि विनय-पिटक को छिपाकर रखा जाना चाहिए, जिससे अपयश न हो। कहने का आशय यह है कि प्रायश्चित्त-प्रकरण में भिक्षुओं और भिक्षुणियों द्वारा प्रमाद या भोगाकांक्षा के उभर आने के कारण सेवित उन चारित्रिक दोषों का भी वर्णन है, जिनकी विशुद्धि के लिए अमुक-अमुक प्रायश्चित्त करने होते हैं । जन-साधारण तक उस स्थिति का पहुँचना लाभकर नहीं होता । जो वस्तु-स्थिति के परिपूर्ण ज्ञाता नहीं होते, उनमें इससे श्रमण श्रमरिणयों के प्रति अनेक प्रकार की विचिकित्सा तथा अश्रद्धा का उत्पन्न होना आशंकित है। सम्भवतः इसी कारण गोप्यता का संकेत किया गया प्रतीत होता है।
१. निसीह (निशीथ ), २. महा निसीह । महानिशीथ ), ३. ववहार ( व्यवहार ), ४. दसासुयक्खंध ( दशाश्रुतस्कन्ध ), ५. कप्प ( कल्प ), ६. पंच-कप्प अथवा जीयकप्प (पंच कल्प अथवा जीवकल्प ) प्रभृति छः छेद-सूत्र माने गये हैं।
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