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भाषा और साहित्य ]
आषं (अर्द्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४२३
नन्दीसूत्र में एक सौ आठ प्रश्न, एक सौ ग्राठ अप्रश्न, एक सौ आठ प्रश्नाप्रश्न, अंगुष्ठ के प्रश्न, बाहु के प्रश्न अदर्श (दर्पण) प्रश्न, अन्य अनेक दिव्य विद्याएँ ( मन्त्र - प्रयोग), नागकुमार तथा स्वर्णकुमार देवों को सिद्ध कर दिव्य संवाद प्राप्त करना आदि प्रश्नव्याकरण के विषय वरित हुए हैं ।"
स्थानांग और नन्दी में प्रश्न- व्याकरण के स्वरूप का जो विश्लेषण हुआ है, वैसा कुछ भी आज उसमें नहीं मिलता। इससे यह अनुमान करना अनुचित नहीं होगा, स्थानागं और नन्दी के अनुसार इस का जो मौलिक रूप था, वह रह नहीं पाया । सम्भवतः उसका विच्छेद हो गया है ।
११. वित्रागस्य विवाकत )
अशुभ -- पाप और शुभ - पुण्य कर्मों के दु खात्मक तथा सुखात्मक विपाक (फल) का इस श्रुतांग में प्रतिपादन किया गया है। इसी के रण यह विप व भूत या विपाक सूत्र कहा जाता है । दो श्रुत-स्कन्धों में यह श्रुतांग विभक्त है । पहला श्रुत-स्कन्ध दुख-विपाक विषयक है तथा दूसरा सुख-विषयक । प्रत्येक में दश दश अध्ययन हैं, जिनमें जीव द्वारा आचरित कर्मों के अनुरूप होने वाले दुखात्मक और सुखात्मक फलों का विश्लेषण है ।
तलस्पर्शी एवं विशद विवेचन हुआ है,
जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त का जो सूक्ष्म, विश्व के दर्शन वाङ्मय में वह अनन्य साधारण है।
उसके सोदाहरण विश्लेषरण - विवेचन दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत उपयोगी है। इसमें जहां कहीं लट्ठी टेक कर चलता हुआ, भीख मांगता हुआ कोई अन्धा दिखाई देता है, वहां कहीं श्वास, कास, कफ, भगन्दर, खुजली, कुष्ट आदि भयावह रोगों से पीड़ित मनुष्य मिलते हैं । राजपुरुषों द्वारा निर्दयतापूर्वक ताड़ित, पीडित तथा उद्वेलित किये जाते लोग दिखाई देते हैं । गर्भवती स्त्रियों के दौहद, नर बलि वेश्याओं के प्रलोभन, नाना प्रकार के मांस संस्कार व मिष्टान आदि के विषय में भी प्रस्तुत ग्रन्थ में विवरण प्राप्त होते हैं। इससे पुरातन कालीन मान्यता प्रवृत्तियों, प्रथानों, अपराधों आदि का सहज ही परिचय प्राप्त होता है । सामाजिक अध्यन की दृष्टि से यह श्रुतांग बहुत महत्वपूर्ण है ।
१. से किं तं पण्हावागरणाई ? पण्हावागरणे सुरणं अट्ठत्तरं पसिणसयं अट्ठत्तरं अपसिरासयं अठत्तरं परिरणा पसिरासयं तंजहा - अंगुट्ठपसिरगाई, बाहुपसिरगाई, अद्दागपरिगाई. सया नाग - सुवहिं सिद्धि दिव्वा संवाया आघदिज्जति, पण्हावागरणारां परिता वायणा संविज्जा अणुओगदारा, संखिज्जा सिलोगा |
- नन्दी सूत्र, पृ० १८५-८६
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