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भाष और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय । ४२९ ___ वेदों के अंगों तथा उपांगों की प्रतिष्ठापना की तो सार्थकता सिद्ध हुई, पर, उपवेद वेदों के किस रूप में पूरक हुए ; दार्शनिक दृष्ट्या उतना स्पष्ट नहीं है, जितना होना चाहिए। उदाहरणार्थ, सामवेद से गान्धर्व उपवेद को जोड़ा जा सकता है, उसी तरह अन्य उपवेदों की भी वेदों के साथ संगति साधने से लिए विवक्षा हो सकती है। दूरान्वितततया संगति जोड़ना या परस्पर तालमेल बिठाना कहीं भी दुःसम्भव नहीं होता। पर, वह केवल तर्क कौशल और वाद-न पुण्य की सीमा में आता है। उसमें वस्तुतः सत्योपपादन का भाव नहीं होता। पर, 'उप' उपसर्ग के साथ निष्पन्न शब्दों में जो 'पूरकता' का विशेष गुण होना चाहिए, वह कहां तक फलित होता है, यही देखना है। जैसे, गान्धर्व उपवेद सामवेद से निःसृत या विकसित शास्त्र हो सकता है, पर, वह सामवेद का पूर्वक हो, जिसके बिना सामवेद में कुछ अपूर्णता प्रतीत होती हो, ऐसा कैसे माना जा सकता है ? प्रस्तु, सामवेद और गान्धर्व उपवेद की तो किसी-न-किसी तरह संगति बैठ भी सकती है, पर, औरों के साथ ऐसा नहीं हो सकता। फिर भी ऐसा किया गया, यह क्यों ? इस प्रश्न का इत्थंभूत समाधान सुलभ नहीं दीखता। हो सकता है, धनुर्वेद मादि लोकजनीन शास्त्रों को ठेठ वैदिक वाङमय का अंश या भाग सिद्ध करने की उत्कण्ठा का यह परिणाम हुआ हो।
प्रस्तुत सन्दर्भ : जेन अतीपांग ___ अंग-प्रविष्ट या अंग-श्रुत सर्वाधिक प्रामाणिक है ; क्योंकि वह भगवत्प्ररूपित और गणधर-सर्जित है । तद् व्यतिरिक्त साहित्य ( जो स्थविरकृत ) का प्रामाण्य उसके अंगानुगत होने पर है। वर्तमान में जिसे उपांग-साहित्य कहा नाता है, वह सब अंग-बाह्य में सन्निविष्ट है। उसका प्रामाण्य , जैसा कहा गया है, अंगानुगतता पर है, स्वतन्त्र नहीं । फिर बारह ग्रन्थों को उपांगों के रूप में लिये जाने के पीछे कोई विशेष उपयोगितावादी, सार्थकतावादी दृष्टिकोण रहा हो, यह स्पष्ट भासित नहीं होता। इस सम्बन्ध में कुछ विशेष तथ्यों की ओर संकेत किया ही जा चुका है।
वेद के सहायक अंग तथा उपांग ग्रन्थों की तरह जैन मनीषियों का भी अपने कुछ महत्वपूर्ण अंग-बाह्य ग्रन्थों को उपांग नाम दे देने का विचार हुआ हो। क्रम-सज्जा नाम सौष्ठव आदि के अतिरिक्त इसके मूल में कुछ और भी रहा हो, यह गवेष्य है ; क्योंकि हमारे समक्ष स्पष्ट नहीं है। उपांगों ( जैन श्र तोपांगों ) के विषय में ये विकीर्ण जैसे विचार हैं, जिन्हें यहां उपस्थित किया गया है । जैन मनीषियों पर इनके सन्दर्भ में विशेष रूप से चिन्तन और गवेषणा का दायित्व है।
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