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भाषा और साहित्य ] आर्ष (अद्धमागधी) प्राकृत और आगम वाङमय [ ४१७ जैन धर्म का विश्वकोश
प्रश्नोत्तर-क्रम के मध्य जैन तत्वज्ञान, इतिहास, अनेकानेक घटनाओं तथा विभिन्न व्यक्तियों का वर्णन, विवेचन इतना विस्तृत हो गया है कि उनसे सम्बद्ध अनेक पहलुओं का व्यापक ज्ञान प्राप्त होता है। इस अपेक्षा से इसे प्राचीन जैन ज्ञान का विश्वकोश कहना अतिरंजन नहीं होगा।
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विस्तार में जाते हुए विवरण को संक्षिप्त करने के निमित्त स्थान-स्थान पर प्रज्ञापना, जीवाभिगम, औपपातिक व नन्दी जैसे ग्रन्थों का उल्लेख करते हुए उनमें से उन-उन प्रसंगों को ले लेने का सूचन किया है। नन्दीसूत्र वलभी वाचना के प्रायोजक एवं प्रधान देवद्धिगणी क्षमाश्रमण की रचना माना जाता है। उसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख होने से तथा यहाँ के विवरणों को उसे देखकर पूर्ण कर लेने की जो सूचना की गयी है, उससे यह प्रमाणित होता है कि इस श्रुतांग को अपना वर्तमान रूप नन्दीसूत्र रचे जाने के पश्चात् वीर निर्वाण से लगभग १००० वर्ष पश्चात् ई० सन् ५२७ में प्राप्त हुआ है। यही स्थिति अन्य श्रुतांगों के सम्बन्ध में भी घटित होती है। ऐसा होते हुए भी इसमें सन्देह नहीं कि विषय-वस्तु पुरातन तथा प्राचार्य-परम्परानुस्यूत है।
নিহাসিক প্রসঙ্গী
भगवान् महावीर के जीवन-चरित, उनके अनेक शिष्य, श्रावक-गृहस्थ अनुयायी तथा अन्य तीथिकों के सम्बन्ध में इस श्रुतांग में विवेचन प्राप्त होता है, जो इतिहास की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है। सातवें शतक में वर्णित महाशिला कंटक संग्राम तथा रथमूसल संग्राम ऐतिहासिक, राजनीतिक तथा युद्ध-विज्ञान की दृष्टि से प्राचीन भारत का एक महत्वपूर्ण प्रसंग है । अंग, बंग, मलय,मालवय, अच्छा, वच्छ, कोच्छ, दाढ़, लाढ़, वज्जि, मोलि, कासी, कोशल, प्रबाह, सुमुत्तर प्रादि जनपदों का उल्लेख भारत की तत्कालीन प्रादेशिक स्थिति का सूचना करता है। प्राजीवक सम्प्रदाय के संस्थापक, भगवान महावीर के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी मंखलिपुत्र गोशालक के जीवन, कार्य प्रादि के सम्बन्ध में जितने विस्तार से यहां परिचय प्राप्त होता है, उतना अन्यत्र नहीं होता । स्थान-स्थान पर पार्श्वपत्यों तथा उनके द्वारा स्वीकृत व पालित चातुर्याम धर्म का उल्लेख मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् महावीर के समय में तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के युग से चले पाने वाला निम्रन्थ सम्प्रदाय स्वतन्त्र रूप में विद्यमान था। उसका भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित
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